हास्य व्यंग्य

माया महाठगिनी हम जानी

सब कहते हैं-मंहगाई बढ़ गई। कितना सरासर झूठ कहते हैं। इन झूठों के मारे यदि कल शाम तक धरती रसातल में मिले तो आप अचरज न कीजिएगा। अब देखिए न कल तक जो सिगरेट का कश तीन रूपये में मारा जाता था, वहीं पर हमारे यार चार-चार रूपये की सिगरेट के गोल-गोल छल्ले बेफिक्री से हवा में उड़ा रहे हैं। पान और गुटकों की पीक भी अब ज़मीन पर पड़ने के बाद ज्यादा चमकदार दिखाई देती है। पिछले बजट में उनकी शान में सदा की तरह वृद्धि हुई। शक्कर के बढ़े दाम भी चाय में शक्कर की मात्रा कम न करवाने की हिम्मत न करवा सके। उधर पत्नी ने एक चम्मच शक्कर कम क्या डाली इधर साहब का पारा तुरंत सातवें आसमान पर जा पहुँचा। कहने का तात्पर्य-शक्कर हो या तेल, फल हो या सब्जी, डीजल हो या पेट्रोल, शराब हो या परफ्यूम, या फिर दवा हो या दारू, सब वैसे ही प्रयोग में लाए जा रहे हैं। जैसे सब पहले मायाजाल में भ्रमित हैं। याद कीजिए प्रधानमंत्री ने वादा किया था-हम गरीबी हटा देंगे। उनका संकल्प पूरा हुआ। हट गयी गरीबी। सब इस लायक हो गए कि अधिक कीमतें देकर उन्हीं चीजों का खरीदने लगे। अब बताइए यदि आप गरीब होते तो बढ़ी हुई कीमतें देकर मंहगी चीजें खरीदते? कभी नहीं। इधर सरकार ने आपकी औकात बढ़ा दी। और आप हैं कि मंहगाई बढ़ गई का नारा लगा रहे हैं।
मेरे पिता शिक्षक थे। निरीह जंतु। भारत में षिक्षक की यही परिभाषा बुद्धिजीवियों, लक्ष्मीपतियों और बलपतियों ने रखी है। वे पचास वर्ष पूर्व बड़ी ही शान से सीना ठोंककर बताते थे कि वेतन के रूप में उन्हें साठ रूपये मिलते थे। हम भारतीयों में यही बड़ी बुरी आदत है। अपनी गरीबी का डिढोंरा भी बड़ी शान से पीटते हैं। सुदामा तक इस मोह से न बच सका। पहुँच गया चीथड़े लटका कर द्वारिका कि हम द्वारिकाधीश के मित्र हैं, गरीब हैं तो क्या? वो तो कृष्ण थे तो मामला संभाल लिया और जैसे-तैसे खींच कर ले गए राजमहल के भीतर। वरना आजकल के लक्ष्मीपति होते तो बच्चू को छठीं का दूध याद आ जाता।
मेरी सरकार बड़ी रहमदिल है। जो साल में दो बार धनवान होने का अवसर मुझे प्रदान करती है। बल्कि यदि यह कहूँ तो ज्यादा ठीक होगा कि साल में दो बार धनवान बना देती है। मैं इतना कृतध्न नहीं हूँ सरे बाज़ार उसे कोसूँ! मेरे माध्यम से समाज के अन्य लोग भी धनवान होते जाते हैं। पर वे सरकार का उपकार नहीं मानते। अहसान फरामोश कहीं के! क्हते हैं-मंहगाई बढ़ गई। अभी उस दिन रिक्शेवाले ने मुझसे उसी स्थान पर ले जाने के दस रूपये अधिक लिए। कारण पूछा तो वही राष्ट्रीय-घोष दोहराया-मंहगाई बढ़ गयी है साहब! मैंने बड़े भारी मन से अपनी जेब हल्की की। उसे दस रूपये अधिक देकर धनवान कर दिया।
सच कहता हूँ मंहगाई मुझे बड़ी अच्छी लगती है। जो मुझे धनवान बनाती रहती है। इस मंहगाई ने शिक्षकों का तक सम्मान बढ़ा दिया साहब। लड़की का बाप अब शिक्षकों से अपनी बेटी का ब्याह करने से नहीं घबराता। बड़ी शान से बताता है-पहले ज़माने के राष्ट्रपति के बराबर तनख्वाह मिलती है हमारे दामाद को। बड़ी विडंबना है, सब एक ही राग आलाप रहे हैं। एक ने कही दूजे ने मानी, गुरूजी कहे दोनों ज्ञानी। यहाँ सब ज्ञानी बने हुए हैं। सरकार की उदारता नहीं देख रहा है कोई। यदि सरकार न होती तो हम धनवान न होते। भिखारियों को अब एक रूपया देने मे लाज आती है। मैं तो देने के पहले आसपास देख लेता हूँ कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा। ऊँची खानदान के भिखारी तो पाँच रूपये से कम नहीं लेते।
सब कहते हैं-मंहगाई आसमान छू रही है। मैंने आसमान की ओर आँखे फाड़कर देखा। मुझे वहाँ मंहगाई न दिखी। काले-काले पानीदार बादल दिखे। मैंने कहा न यह झूठों की दुनिया है। मैं समझ गया। मंहगाई याने काले-काले बादल। अब मुसीबत देखिए न। ये बादल बरस गये तो सारी धरती गीली-गीली हो गई। अब मंहगाई आसमान से धरती पर उतरी पर कीचड़ बनकर। ऊपर आसमान में मंहगाई के काले-काले बादल और इधर नीचे धरती पर मंहगाई का गंदा-गंदा कीचड़। ऊपर बादल-नीचे कीचड़। मुझे कबीरबाबा याद आ रहे हैं। वे भी यही कहते थे- माया महा ठगिनी हम जानी।

शरद सुनेरी