धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर का ध्यान वा संन्ध्या क्यों करें?

ओ३म्

इस संसार को एक अपौरुषेय सत्ता ने बनाया है। उस सत्ता का नाम ईश्वर है। अपौरुषेय सत्ता मनुष्य से भिन्न वह सत्ता होती है जो मनुष्यों के हित का वह काम करती है जिसे कि मनुष्य नहीं कर सकते।  हमारे सामने सूर्य, चन्द्र व पृथिवी की सत्तायें हैं। यह सभी सत्तायें जड़ अर्थात् ज्ञान व सम्वेदना से शून्य हैं। जड़ पदार्थ वह होते हैं जो स्वयं बुद्धि व ज्ञानपूर्वक स्वयं संयोग कर किसी नये उपयोगी पदार्थ को नहीं बना सकते। हम जानते हैं कि यदि हमारे पास रोटी बनाने के आटा, गैस चूल्हा आदि सभी पदार्थ हों ओर उन्हें हम उन्हें एक स्थान पर रख दें तो बिना किसी मनुष्य के बनाये उनसे रोटी नहीं बन सकती। अब यदि एक रोटी बनाने का जानकार व्यक्ति, स्त्री या पुरुष, वहां हो और वह रोटी बनाने की चेष्टा करे तो तभी रोटी बनती है। इसी प्रकार से यह संसार भी जड़ पदार्थ प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं से बना है। यह विभाज्य परमाणु व उन परमाणुओं से बने सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि पदार्थ स्वमेव नहीं बने अपितु उन्हें एक चेतन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी एवं सर्वशक्तिमान स्वरूपवाली सत्ता ने बनाया है। इस अपौरूषेय सत्ता को ही ईश्वर ही कहते हैं। इस ईश्वर ने इस सृष्टि व इस पर विद्यमान सभी प्राणियों के शरीरों को भी बनाया है। इसका यह तात्पर्य है कि हमारा जन्म ईश्वर की ज्ञान व कर्म शक्ति के आधार पर हुआ है। यदि उसने हमें जन्म न दिया होता तो यह हो नहीं हो सकता था क्योंकि ऐसा करना मनुष्यों की शक्ति वा सामर्थ्य में नहीं है और स्वतः यह कार्य हो नहीं सकता था। ईश्वर अर्थात् परमात्मा की इस कृपा व ऋण के लिए हमें उसका स्मरण व ध्यान कर धन्यवाद करना है जिससे हम कृतघ्नता के पाप से बच सकें और अपना यह जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर सकें। इसके साथ परजन्म में भी हमारा जन्म अच्छी योनि में हो और हम हम सुखी जीवन व्यतीत करें इसलिए हमें ईश्वर आज्ञानुसार सन्ध्या आदि को करना व उसके ज्ञान वेदों का स्वाध्याय कर अपने कर्तव्यों को निर्धारित करना है।

मनुष्य सन्ध्या वा उपासना क्यों करता है, इसका उत्तर यही है कि हम ईश्वर के कृतज्ञ हैं और उसका धन्यवाद करने के लिए हमें उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी है। इस पूरी प्रक्रिया को सन्ध्या कहा जाता है। इसका अर्थ होता है कि ईश्वर का भलीभांति ध्यान करना। सन्ध्या की विधि क्या हो, इसके लिए ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या की सर्वोत्तम पद्धति लिखी है जिसे उन्होंने वेदों के अध्ययन व ज्ञान के अनुरूप तैयार किया गया है। यह ज्ञातव्य है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जिसका सभी को अध्ययन व मनन कर अपने कर्तव्यों का निर्धारण व उपदेश करना है। ईश्वर के ध्यान की विधि ऐसी होनी चाहिये जिससे हम उसका सान्निध्य प्राप्त कर अपने दुर्गुण, दुर्व्यस्न व दुःखों को दूर कर सके और उससे कल्याणकारक गुण, कर्म व स्वभाव को प्राप्त होकर सुखी हो सकें। इसका विधान यही है कि हम एक स्थिर आसन में बैठे जिसमें अधिक देर तक सुखपूर्वक बैठ सकें अर्थात् जिसमें हमें कोई कष्ट व दुःख न हो। अब हमें करना यह है कि अपने इन्द्रियों को उनके बाह्य विषयों से रोकर अपने मन को नियंत्रित करना है जिससे वह सांसारिक विषयों से हट कर ईश्वर के गुणों को स्मरण कर उसकी स्तुति कर सके। इसे मन की एकाग्रता कह सकते हैं जो सांसारिक विषयों से हटकर ईश्वर का ही ध्यान व चिन्तन करता है। स्तुति के बाद प्रार्थना का स्थान है। ईश्वर से हम वह सब कुछ मांग सकते हैं जिससे कि हमारा कल्याण होता है। बुद्धि व स्वास्थ्य सहित हम ईश्वर से धन, ऐश्वर्य व सुखों की कामना कर सकते हैं। ईश्वर के गुणों का ध्यान करते हुए उसकी स्तुति व प्रार्थना करना ही ईश्वरोपासना विदित होता है। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्या करने के लिए वैदिक सन्ध्या नामक एक लघु ग्रन्थ लिखा है। सन्ध्या के आरम्भ में गायत्री मन्त्र से शिखा बन्धन किया जाता है। तात्पर्य यह है कि हमारी इन्द्रिया बाह्य विषयों से हट कर ईश्वर के ध्यान में संलग्न हो जायें। इसके बाद आचमन किया जाता है। आचमन का मंत्र सन्ध्या करने के तात्पर्य को बताता है। यह मन्त्र है ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः।।’ इस मन्त्र का ऋषि दयानन्द ने अर्थ करते हुए लिखा है कि सबका प्रकाशक और सबको आनन्द देने वाला सर्वव्यापक ईश्वर मनोवांछित आनन्द, अर्थात् ऐहिक सुखसमृद्धि के लिए और पूर्णानन्द, अर्थात् मोक्षानन्द की प्राप्ति के लिए हमको कल्याणकारी हो, अर्थात् हमारा कल्याण करे। वही परमेश्वर हम पर सुख की सर्वदा, सब ओर से वृष्टि करे।

इस मन्त्र में ईश्वर से कहा गया है कि ईश्वर सबको आनन्द देने वाला है। वह सर्वव्यापक है। वह ईश्वर हमें मनोवांछित आनन्द प्रदान करे अर्थात् हमें सांसारिक सुख-समृद्धि प्रदान करने के साथ पूर्ण आनन्द प्राप्त कराये। पूर्णानन्द मोक्ष के आनन्द को कहते हैं जो प्राप्त होने पर मनुष्य जन्म व मरण के बन्धन व कष्टों से बहुत लम्बी अवधि के लिए छूट जाता है और ईश्वर के सान्निध्य में रहकर पूर्ण आनन्द वा अत्यधिक सुख को प्राप्त करता है। इस मन्त्र में हम ईश्वर से कल्याण की प्रार्थना भी करते हैं। प्रार्थना में यह कहा गया है कि परमेश्वर हम पर सर्वदा सब ओर से सुख की वर्षा करे। मनुष्य जीवन में इस निर्विवाद उद्देश्य को पूरा करने के लिए सबको अवश्य सन्ध्या करनी होती है। ऐसा कौन मनुष्य होगा जो इन सुखों को प्राप्त करना नहीं चाहेगा? इन सुखों को प्राप्त करने का क्या अन्य कोई साधन है? इस प्रश्न पर विचार करने पर उत्तर न में मिलता है। अतः ईश्वर की उपासना से ही सभी सुख व आनन्द प्राप्त हो सकते हैं। इसी कारण व उद्देश्य हमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित उसका प्रातः व सायं चिन्तन व मनन करते हुए ध्यान करना चाहिये।

सन्ध्या करते हुए हम आचमन मंत्रों के बाद इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन, प्राणायाम, अघमर्षण अर्थात् पाप से दूर रहने का चिन्तन, मनसापरिक्रमा, उपस्थान मन्त्रों का पाठ करते हैं। इनके बाद ईश्वर को समर्पण किया जाता है। समर्पण करते हुए ईश्वर से कहा जाता है हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिभवेन्नः।’ अर्थात् हे परमेश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें। समर्पण में हम कहते हैं कि दया के भण्डार ईश्वर की कृपा से हमने जो जप व उपासना की है उसके परिणाम से हमको धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की शीघ्रातिशीघ्र प्राप्ति हो। इसका अर्थ यह है कि हम जो भी कर्म करे वह वेद सम्मत हो। वेद सम्मत कर्म ही धर्म कहे जाते हैं। अर्थ का तात्पर्य है कि हमें जो अर्थ व धन प्राप्त हो वह भी धर्मानुसार कर्मों से ही प्राप्त होना चाहिये। धन की प्राप्ति के लिए हमें कोई अनुचित, अशुभ, पाप व अधर्मयुक्त कर्म नहीं करना है। काम का अर्थ यह है कि हमारे विचार, इच्छायें व आकांक्षायें सब धर्मानुसार ही होनी चाहियें। ऐसी भावनाओं से युक्त हमारा जीवन हो और हमें जीवन की सम्पूर्ति अर्थात् मृत्यु होने पर मोक्ष प्राप्त हो जिससे हमें जन्म-मरण के बन्धन में न आना पड़े। इसलिए न आना पड़े कि हम गर्भवास की पीड़ा सहित विभिन्न योनियों में जीवनकाल में होने वाले दुःखों से बच सकें। अतः धर्मानुकूल सुखी जीवन और मृत्यु पर मोक्ष प्राप्ति ही सन्ध्या का उद्देश्य व लक्ष्य सिद्ध होता है। मोक्ष पूर्णानन्द को कहते हैं जो कि सभी मनुष्यों का अभीष्ट है। इसकी प्राप्ति के लिए ही हम अपनी अपनी बुद्धि व सामर्थ्य के अनुसार नाना प्रकार के कर्म करते हैं। ईश्वर को इस प्रकार समर्पण करने के बाद ईश्वर को नमस्कार पूर्वक विदाई लेते हैं।

हम समझते हैं कि जिन लोगों की बुद्धि पवित्र है, जो पक्षपात रहित हैं और जो ईश्वर व आत्मा के स्वरूप को यथार्थरूप में जानते हैं वह अवश्य ही सन्ध्या को मनुष्य जीवन का अत्यावश्य कर्तव्य स्वीकार करेंगे और जीवन भर सन्ध्योपासना करके सन्ध्या के लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे। इसी में सभी मनुष्यों को कल्याण हैं। सन्ध्योपासना की विधि किसी आर्यसमाज व आर्य प्रकाशक से मंगाई जा सकती है। इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य