कविता

दस रोज की एकमुश्त सालाना छुट्टियाँ

दस रोज…
दस गुलाबों की तरह थे
महकते हुए
दहकते हुए

दस रोज
यादों की नीली सी
डायरी में
सूखकर
भी
नहीं सूखेंगे

इन गुलाबों की रूह
से शबनम की बूँदें
ख्वाब के मखमली
अँधेरे में

निगाहों के झरोखें
पे चमकेंगे

ये दस रोज
कब आएँगे
कुछ कह नहीं सकते

कभी साल के कैलेंडर
की तरह एक बार
कभी
नौ
कभी
छः
महीने में
एक बार

डेढ़ वनवास
से भी ज्यादा का
वक्त गुजर
चुका
कंकरीट के
दंडकारण्य में
एकाकीपन के
पंचवटी में
विवशताओं
के किषि्किंधा में

भूल गए हैं
कितने ही
वनवासी राम -लछ्मन
अयोध्या लौटने का
रस्ता भी

कितनी
वैदेहियां
कभी नहीं
लौटीं
मिथिला
की भूमि पर
पुष्पवाटिका में
अपनी सखियों से
दुख सुख बतियाने

कितने पांडव
बेरोजगारी के अज्ञात वास में
स्मृति-भ्रम शिकार होकर
बस गये

बंबई, बंगलोर
समुद्र के कुछ इस छोर
कुछ उस छोर

जश्न है
एक प्रवासी पंछी का
मौसम का बदलना
नये रंग, नये पंख लेकर
ऊँची उड़ान
से नीचे उतरना

दस रोज
नहर किनारे
गुलमोहर के पुराने दरख्त पर
रूकना
कातिक की रूई सी
धूप सेंकना
और
फिर
उड़ जाना

चोंच में
सोने सा
तिनका
वक्त का
लिए हुए.

दस रोज
कातिक पूर्णिमा
के अमृत स्नान
की तरह
पुण्य बटोरा
गंगा, सोन, गंडक
के घाटों पर.

दस रोज…
दस गुलाबों की तरह थे
महकते हुए
दहकते हुए

गौतम कुमार सागर

गौतम कुमार सागर

सीनियर मैनेजर (बैंक ऑफ बड़ौदा ) लेखन कार्य :- विगत बीस वर्षों से हिन्दी साहित्य में लेखन. दो एकल काव्य संग्रह प्रकाशित . तीन साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित . विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित . अखिल भारतीय स्तर पर " निबंध , कहानी एवं आलेख लेखन " में पुरस्कृत. संपर्क :- 102 , अक्षर पैराडाईज़् नारायणवाडी रेस्तूरेंट के बगल में अटलादरा वडोदरा (गुजरात) मो. 7574820085