राजनीति

लेख– गांधी के रामराज्य औऱ वर्तमान राजनीतिक रामराज्य में इतना अंतर क्यों

यह कैसी अजीब घड़ी से देश गुजर रहा है। देश में राजनीति करने के लिए महात्मा गांधी की प्रासंगिकता तो है, लेकिन शासन-प्रशासन चलाने के लिए उनके विचारों को महत्व नहीं दिया जा रहा। आज की हुक्मरानी व्यवस्था तो रामराज्य की बात करती है, लेकिन क्या जिस दौर में साम्प्रदायिक सौहार्दपूर्ण परिवेश बिगड़ने लगे। तो क्या यह उम्मीद की जा सकती है, कि देश गांधी के सपनों के रामराज्य की तरफ़ बढ़ रहा है। तो पहले क्यों न हम इसके लिए गांधी के सपनों के रामराज्य को समझें, जिसको आज की सियासत ने तिलांजलि दे दिया है, उस पर ज़मीं धूल को हटाने का कार्य करें। गांधी ने राम नाम का उपयोग देश की सहिष्णु, उदार और गंगा-जमुनी तहज़ीब को सहेजने के साथ समाज में फैली साम्प्रदायिकता की चिंगारी और सामाजिक वैमस्यता को दूर करने के लिए किया था। ऐसे में क्या जब देश अपनी आजादी की 75 वर्षगांठ आने वाले वर्षों में मनाने वाला है। तो सामाजिक वैमस्यता दूर हुई नहीं, क्योंकि शायद आज राजनीति भी अपना राजधर्म भूल कर सिर्फ़ मततंत्र का चक्रव्यूह रचने में विश्वास करने लगी है।

जिसका उदाहरण यहीं है, कि एक धर्मनिरपेक्ष देश मे जातिगत राजनीतिक दलों की स्थापना हो रहीं है, साथ में जातीय मसीहा भी उत्पन्न हो रहें हैं। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने बीते दिनों देश में बिगड़ती सामाजिक स्थिति की जो तस्वीर खींची, वह आज के स्थापित होते राजनीतिक रामराज्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। क्या यहीं रामराज्य है, जिसमें सामाजिक द्वेष की भावना बढ़ती जा रहीं है। यह कैसा रामराज्य बनाया जा रहा, जिसमें किसी का भी खून सिर्फ़ इसलिए बहाया जा सकता है, क्योंकि वह दूसरी क़ौम से है। यह गांधी के सपनों का रामराज्य नहीं हो सकता। यह राजनीति का अपना बनावटी रामराज्य हो सकता है, जिसका अंतिम उद्देश्य देश की अलग-अलग क़ौमों को लड़ाकर स्वार्थ सिद्ध करना उद्देश्य होता है। लोकसभा में पेश हुई रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में देश भर में 822 साम्प्रदायिक दंगे हुए, 2016 में 703 तो 2015 में 753 साम्प्रदायिक दंगे हुए, यानि आए दिन दंगों की संख्या बढ़ती जा रहीं है। जो यह साबित करता है, कि देश का माहौल अंदुरुनी तरीक़े से दूषित होता जा रहा है। सामाजिकता ने राजनीतिक द्वंद्व औऱ चाल के आगे शायद घुटने टेक दिए हैं, तभी तो रामराज्य नहीं, बल्कि देश जंगलराज की ओर बढ़ रहा है, लेकिन राजनीति तो उसे न्यू इंडिया का चश्मा पहनाकर रामराज्य औऱ विश्व गुरु बनने की दिशा में अग्रसर बता रहीं है, जो बुद्विजीवियों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।

अकेले अगर उत्तरप्रदेश में पिछले वर्ष 195 साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिसमें 44 अवाम ने जान गंवाई, और 500 से अधिक घायल हुए। और मरने और घायल होने वाले में अगर कोई एकाध भी नेता आदि न शामिल हो, तो शायद पर्दे के पीछे का खेल राजनीतिक हैसियतदार ही खेल रहें हैं। ऐसे में देश की सभी कौमों को समझना होगा, कि सभी धर्मों का मूल क्या है, क्योंकि धर्म के नाम पर समाज को ध्रुवीकरण की ओर धकेला जा रहा। यह चिंताजनक बात है, कि सत्ता में बने रहने के लिए या तो सत्ता छिनने के लिए राजनीति द्वारा देश को अशांत करने की कोशिशें जारी है। जनहित के मुद्दों से बहस को मोड़कर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ना रहनुमाई व्यवस्था के लिए सही हो सकती है, देश की गंगा- जमुनी तहज़ीब के लिए कतई नहीं। यह राजनीति करने वालों को समझना चाहिए। राजनीति का भी अपना एक राजनीतिक राजधर्म और सामाजिक धर्म होता है। अपने हितोउद्देश्य के लिए सियासतदां यह बात क्यों भूलते जा रहें हैं। जानकारों के मुताबिक योग्य व्यक्ति वह होता है, जो न इतिहास को लेकर प्रलाप करता है, औऱ न भविष्य को लेकर चिंतित होता है। वह सिर्फ़ वर्तमान में जीता है। ऐसे में जिस हिसाब से देश के सभी हिस्सों से जाति, धर्म औऱ गौ संरक्षण आदि के नाम पर सामाजिक सौहार्द औऱ संवैधानिक ढाँचे को चुनौती दी जा रहीं है। उससे ज्वलन्त प्रश्न यहीं सामाजिकता का ताना-बाना तोड़कर कैसे विकास की परिभाषा गढ़ी जा रहीं, और किसके सपनों का रामराज्य बनाया जा रहा।

अगर वर्तमान दौर में राजनीतिकार जनता की समस्याओं को दूर करने और सामाजिक सौहार्द निर्मित करने की पहल करते नहीं दिखते, तो यह निंदनीय बात लोकतांत्रिक परिवेश के लिए है। बीते वर्षों में जिस हिसाब से देश के भीतर साम्प्रदायिक सद्भाव की भावना कमजोर हुई है, और लगातार सियासतदां अपने हित के लिए वैमस्यता औऱ द्वेष फ़ैलाने वाले उद्धबोधन दे रहें हैं। उसका मतलब साफ़ है, देश रामराज्य की दिशा में नहीं, वैमस्यता की खाई की तरफ़ बढ़ रहा है। देश के विकास का अर्थ किसी ख़ास व्यक्ति या समूह के विकास से नहीं होता। इसके अलावा रहनुमाई व्यवस्था को भी समझना होगा, कि उनकी जिम्मेदारी सभी धर्मों को समान रूप से बढ़ावा देना होता है, न कि आग में घी डालने का। इसलिए अगर देश की रहनुमाई व्यवस्था सच्चे अर्थों में रामराज्य की स्थापना करनी चाहती है, साथ मे देश को विकसित अवस्था पर देखना चाहती है, तो हर जाति, धर्म और समुदाय को साथ लेकर चलना होगा। लोगों की आंखों में डर औऱ हिंसा की तस्वीरों के निर्मित हो जाने से देश अमन – चैन को प्राप्त नहीं कर सकता। यह भी राजनीति को सोचना होगा। इसके इतर 1929 में गांधी जी अपनी यंग इंडिया में लिखते हैं, कि राम राज्य से मेरा निहितार्थ हिंदू राज्य से नहीं है। मेरा अर्थ ईश्वरीय राज से है, चाहे मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर रहे हों या नहीं। इसके साथ राम राज्य का प्राचीन आदर्श नि:संदेह एक ऐसे सच्चे लोकतंत्र का है जहां सबसे कमजोर नागरिक और समाज की अंतिम पंक्ति में ख़ड़े व्यक्ति को भी सभी की तरह न्याय आदि मिले, तो फ़िर जब गांधी को सभी दल अपना बताते नहीं थकते, फ़िर गांधी औऱ वर्तमान राजनीति के रामराज्य अलग-अलग क्यों दिखते हैं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896