सामाजिक

लेख– स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में काफ़ी सुधार की आवश्यकता

कहते हैं, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है, औऱ स्वस्थ मस्तिष्क होगा, तभी समाज को स्वस्थ बनाने के लिए विचार उत्पन्न होंगे। पर बीते ड़ेढ- दो हफ़्ते के बीच तीन घटनाएं घटित हुई, जो यह साबित करती है, कि हमारी रहनुमाई व्यवस्था के वास्तव में कई रंग हैं। पहली घटना बजट में लोगों को स्वस्थ बीमा देने की बात, जो एक अच्छी तस्वीर भविष्य की ख़डी करती है, लेकिन शायद वादों में, क्योंकि दूसरी औऱ तीसरी ख़बर पहले वादे का कचुमढ़ निकाल देती है। दूसरी घटना उन्नाव जिले की है। जो यह बताती है, कि ग्रामीण भारत तो आज भी झोलाछाप डॉक्टर के हाथों में है। तीसरी घटना यह है, कि नीति आयोग ने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था से सम्बंधित एक सूचकांक जारी किया, जिसने देश में स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रति रहनुमाई व्यवस्था कितनी सचेत हैं। उनकी परतें उधेड़ कर रख दी है। रोटी कपड़ा के बाद की सबसे बड़ी आवश्यकता दवा की होती है, लेकिन नीति आयोग की रिपोर्ट ने एक बार पुनः यह जता दिया, कि सरकारें अपनी अवाम के लिए कितनी फिक्रमंद हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के बाद ही सही केंद्र और राज्य सरकारों को अब बेफिजूल की बहसों से दूर हटकर जनता के स्वास्थ्य के प्रति चेत जाना चाहिए, क्योंकि बड़े राज्यों में केरल के अलावा किसी भी राज्य को 70 से ऊपर अंक स्वास्थ्य के क्षेत्र में नहीं प्राप्त हुए हैं।

केरल को जहां 80 अंक मिले, वहीं पंजाब 65 अंक के साथ दूसरे नम्बर पर स्वास्थ्य के क्षेत्र मे है। उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों को 50 से भी कम अंक मिले, जो यह साबित करते हैं, कि अभी ये राज्य सिर्फ़ जातिवादी राजनीति में ही नहीं उलझे, बल्कि इन राज्यों का स्वास्थ्य ढांचा भी काफ़ी कमज़ोर है। नीति आयोग की यह सार्थक पहल है, जिससे राज्यों में स्वास्थ्य को लेकर प्रतिस्पर्धा का माहौल निर्मित हो सकता है, जैसा माहौल स्वच्छ भारत को लेकर हुआ था। तो क्यों न ऐसी रिपोर्ट हर वर्ष जारी की जाए। हां इस रिपोर्ट की दुःखद कहानी यह है, कि ज़्यादातर राज्य 40 से 50 अंक के बीच ही सिमट गए हैं। जिसका मतलब यह है, कि देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में काफ़ी सुधार की गुंजाइश है। और सबसे दुःखद बात यह है, कि कोई भी राज्य पूर्णता ऐसा नहीं कि उसमें सुधार की कोई गुंजाइश न हो। मतलब साफ़ है, सुधार की जरुरत हर राज्य को है, लेकिन वर्तमान में सीख तो केरल राज्य से स्वस्थ सुधार के क्षेत्र में अन्य राज्यों को लेना चाहिए। इसके अलावा केंद्र सरकार सिर्फ़ यह कहकर अपने कर्तव्यों से नहीं भाग सकती, कि वह स्वस्थ के क्षेत्र में पिछड़े राज्यों को अनुदान देगी। उसे ऐसी कटिबद्धता दर्शानी होगी, जिससे राज्य स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार करने को मजबूर हो, क्योंकि स्वास्थ्य का मसला समवर्ती सूची का विषय है, जिसमें केंद्र और राज्य दोंनो का दख़ल होता है।

इसके साथ अगर केंद्र सरकार को अपनी महत्वकांक्षी योजना स्वास्थ्य बीमा योजना को सफ़ल बनाना है। तो उसके लिए भी जरूरी है, कि देश का स्वास्थ्य तंत्र मजबूत हो। वर्तमान समय में देश में एक हजार व्यक्ति पर एक डॉक्टर भी उपलब्ध नहीं है। उससे बड़ी चिंताजनक स्थिति यह है, कि ग्रामीण परिवेश सिर्फ़ डॉक्टरों की कमी से नहीं बल्कि सुविधाओं की कमी से भी जूझ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्वास्थ्य तंत्र ही उदासीनता का शिकार नहीं, गैर-सरकारी तंत्र भी दयनीय है, क्योंकि ग्रामीम क्षेत्रों में तो झोलाछापों की टोली घूम रहीं है। यह देश का दुर्भाग्य ही है, कि कई राज्य एमबीबीएस किए डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने के लिए प्रोत्साहित कर रहें हैं, लेकिन फ़िर भी युवा एमबीबीएस धारी ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएं देने को तैयार नहीं। यह इकीसवीं सदी के भारत की दास्तां है, जब चांद और मंगल पर पहुँचने की बात की जाती है। उस दौर में 40 लोगों को एक ही सिरिंज से इंजेक्शन लगा दिया जाता है। फ़िर क्या कहा जाए, कहीं हवाबाज़ी औऱ दिखावे की राजनीति में देश की रहनुमाई व्यवस्था मूलभूत सुविधाएं मयस्सर करवाना भूल तो नहीं गई।

यह इक्कीसवीं सदी के भारत की एक विडंबना है कि जो विश्व गुरु बनने का दम्भ भर रहा है। आज भी उस देश के बहुतेरे गांवों तक आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच नहीं है। तो ऐसे में यह ग़लत बात नहीं, कि देश विकसित अवस्था की ओर क़दम न बढाए, लेकिन पहले विचार मूलभूत समस्याएं दूर करने की हो। तो ज्यादा अच्छा होता। अगर आज आबादी का एक बड़ा हिस्सा झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर है। तो यह अच्छी बात तो नहीं। जिस देश की जनसंख्या 1.3 अरब की है, उस देश में सिर्फ़ दस लाख डॉक्टर हैं, जिनमें मुश्किल से 10 फ़ीसद डॉक्टरों का जुड़ाव ही सरकारी स्वास्थ्य तंत्र से है, फ़िर यह चिंताजनक स्थिति है। अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में लोगों का इलाज कर रहे, हर पांच में से एक डॉक्टर के पास ही प्रैक्टिस के लिए जरूरी योग्यता होती है। इसके इतर देश के 57.3 फीसदी डॉक्टरों के पास अगर कोई डॉक्टरी की योग्यता नहीं। फ़िर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कहीं अंधेरे में तो नहीं चिड़िया की आंख निशाने के लिए ढूढ़ रहीं, और अगर अंधेरे में निशाना लगाया भी गया, तो परिणाम तो उन्नाव जैसे ही होंगे।

अगर यह मान लिया जाए, कि शिक्षा की भांति स्वास्थ्य भी दो वर्गों में बंट गया है देश में, तो वह भी ग़लत न होगा। एक जो सुविधा संपन्न के लिए है, औऱ एक जो ग़रीब तबक़े के लिए। जहां न जांच के उपकरण होते हैं, और न समय पर डॉक्टर। ऐसे में सवाल यहीं सिर्फ़ नए एम्स खोलने से ग़रीब और ग्रामीण तबक़े को बीमारियों से निजात नहीं मिलेगी। आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। उसमें ग्रामीण इलाकों की हालात तो ओर बदत्तर है। उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का आलम तो यह है , कि सूबे के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के अस्सी फीसद से ज्यादा पद खाली हैं। इसके अलावा प्रदेश में सिर्फ़ 484 विशेषज्ञ डॉक्टर कार्यरत हैं, जबकि जरूरत 3288 विशेषज्ञ डॉक्टरों की है। ऐसी ही तस्वीरों से रूबरू बिहार औऱ अन्य पिछड़े राज्य भी है। तो सिर्फ़ इसपर इतराने से काम नहीं चलेगा, कि भारत विश्व का पहला ऐसा देश बन गया है, जिसने स्वास्थ्य को लेकर राज्यस्तरीय सूचकांक जारी किया है। उसका अगला कदम यह होना चाहिए, जिससे लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो सकें। इसके लिए स्वास्थ्य पर ख़र्च बढ़ाना होगा, स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार करना होगा, और ऐसी नीति बनानी होगी। जिससे बढ़ी तादाद में प्रशिक्षित डॉक्टर तैयार हो सकें, और ग्रामीण क्षेत्रों में भी कार्य करने को तैयार हो। ऐसी कोई व्यवस्था बनाई जाए, तभी स्वस्थ भारत की परिकल्पना सिद्ध हो सकती है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896