सामाजिक

लेख– सिर्फ़ नक़ल पर नकेल नहीं, शिक्षा व्यवस्था पर भी ध्यान देने की आवश्यकता

किसी राज्य में दस लाख छात्र अगर परीक्षा छोड़ दें। तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात कहाँ पहुंच गए हैं। शायद शिक्षा व्यवस्था आज के दौर में पकौड़े तलने वाली संस्कृति की खान ही तैयार करने की दिशा में बढ़ चुकी है। उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार नकल पर नकेल कसने के लिए कड़ा रुख अपनाए हुए है। जो नकल से ही पास होना चाहते हैं और पढ़ते नहीं, उन्होंने परीक्षा ही छोड़ दी है। और ये हाल अकेले यूपी का ही नहीं है। कुछ एक को छोड़ दें तो हर प्रदेश की तस्वीर बयाँ करती है। ऐसे में हम किस तरह का भविष्य तैयार कर रहे हैं, हमें सोचना होगा। आज के दौर में नकल न होने देना अच्छी बात है। लेकिन उसके पहले स्कूल-कॉलेजों की स्थिति को भांपना भी अति आवश्यक है। व्यवस्था इससे अंजान नहीं शायद आंखें फ़ेर रही है, आज की शिक्षा व्यवस्था को लेकर। आज स्कूलों में शिक्षक और छात्र के बीच अनुपात बिगड़ गया है। स्कूल में सिलेबस पूरा नहीं होता। गुणवत्ता तो माशाल्लाह सब रूबरू है उससे। ऐसे में छात्र करें क्या। एक दूसरी स्थिति यह भी है, नक़ल के ठेकेदार बनने वाले पैसे देने का दवाब तक डालते हैं, वह भी हर बच्चों पर, फ़िर हमारी शिक्षा पद्धति किधर बढ़ रहीं है, वह शायद किसी से छिपी नहीं रह सकती। लेकिन इन सब का ईलाज नकल नहीं होना चाहिए।

ऐसे में जब परीक्षा के दरमियान सीसीटीवी लग सकते हैं, तो सालभर भी कैमरे लगे होने चाहिए, जिससे पता चले, क्या औऱ कितना पढ़ाया गया। आज का दस्तूर है, किसी भी कॉलेज में चले जाएं, बदहाली छाई मिलेगी। कहीं अंग्रेजी के शिक्षक नहीं, कहीं लैब मयस्सर नहीं। है तो बनिस्बत साल में एकबार ही ताला खुलता है। ऐसे में पहला सवाल यहीं बिना बुनियादी सुविधाएं दिए सरकारें अच्छे परिणाम की उम्मीद कैसे कर लेती है। आप ही मंथन कीजिए, जीवन में बिना तैयारी के कोई काम सफ़ल हो सकता है, शायद नहीं। अगर हमें खेत में फ़सल उगानी है, तो पहले हमें खेत तैयार करना होगा, फ़िर खाद बीज और उसके बाद पानी औऱ देखभाल की ज़रूरत होगी। तब जाकर कहीं काटने लायक फ़सल तैयार होगी। शायद इस धरा पर हर काम के लिए ऐसी ही प्रक्रिया निर्धारित है। फ़िर बच्चें बिना सुविधाओं के परीक्षा रूपी फ़सल अच्छे से कैसे काट सकते हैं। यह हमारी रहनुमाई व्यवस्था क्यों नहीं समझना चाहती। उत्तरप्रदेश की वर्तमान सरकार नक़ल विहीन परीक्षा करवाने का दम्भ भरकर काफ़ी वाहवाही लूट रही है, लेकिन क्या कोई उन बच्चों की भी सोचेगा, जो कैमरे के डर औऱ परीक्षा हॉल में मुंडी न घूमा पाने के कारण से परीक्षा देने की भी न सोच सकें। अगर परीक्षा के शुरुआती दौर में ही क़रीब दस लाख बच्चों ने परीक्षा छोड़ दी, तो सारा दोष सिर्फ़ बच्चों के सिर मढ़ना भी उचित नहीं होगा। कुछ दोष तो उस शिक्षा व्यवस्था का भी है, जो मलिन हो चुकी है। आख़िर नक़ल करना कौन चाहता है, कुछ मजबूरियां इसके लिए भी उत्तरदायी होती है।

हां यह भी कहना ग़लत होगा, कि परीक्षा छोड़ने वालों में कोई भी नक़ल करने वाला नहीं रहा होगा, होंगे बेशक, क्योंकि समाज तभी चलता है, जब उसमें दोनों सिक्के के पहलू हो। फ़िर सबसे यक्ष प्रश्न यही क्या साधनहीन जिसके पास सिर्फ़ एक मौका होता है फेल या पास होने का, उनपर कोई असर नहीं पड़ेगा इस नकलविहीन परीक्षा का? क्या फ़ेल होने के डर की वजह से अगली बार नामांकन में कमी नहीं आएगी? इन सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या सिर्फ़ नक़ल को रोकने औऱ बच्चों के फेल होने से सब कुछ सुधर जाएगा। शायद क़भी नही। जब अगर बच्चे फ़ेल हो रहें, तो यह उनका फेल होना नहीं, उनके अभिवावक, सरकार और व्यवस्था का फ़ेल होना है। जब तक सबको समान शिक्षा, उचित संसाधन, योग्य, प्रशिक्षित और मानकों पर खरे अध्यापक नहीं मिलेंगे, तब तक शिक्षा क्षेत्र में सुधार नहीं दिख सकता। अभिवावकों की ग़लती यह है, कि वे स्कूल-कॉलेजों की अव्यवस्था के खिलाफ आंदोलित क्यों नहीं होते, बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था का विरोध क्यों नहीं करते।

इसके इतर कुछ यक्ष प्रश्न और भी हैं, उसके उत्तर भी व्यवस्था औऱ सिर्फ़ किताबी ज्ञान को महत्व देने वाले समाज को ढूढ़ना होगा। क्या कैमरे के साथ जांच दल की सक्रियता बच्चों के परिणाम को प्रभावित नहीं करेगी? क्या इससे बच्चों में असुरक्षा की भावना नहीं पैदा होगी? कि वे परीक्षा देने आए हैं, या अपराध करने। जो इतनी निगरानी रखी जा रहीं है। क्या वे इस दबाव में परीक्षा में अपना शत-प्रतिशत प्रदर्शन कर पाएंगे? और नहीं कर पाएंगे, तो क्या वे फेल होने के डर औऱ अवसाद की ओर उन्मुख नहीं होंगे? फ़िर सवाल सिर्फ़ सख्ती दिखाकर वाहवाही लूटने से कुछ नहीं होने वाला। पहले कुछ नीतिगत सुधार करना होगा, मैकाले की चलाई जा रहीं शिक्षा व्यवस्था में? यानि परीक्षा छोड़ने वालों को नुकसान तो है ही, देने वाले भी फ़ायदे में नहीं। ऐसे में रहनुमाई व्यवस्थाओं को समझना होगा, कि उनकी शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य क्या है, कहीं सिर्फ़ मैकाले जैसी शिक्षा देकर सिर्फ़ अपने शासन व्यवस्था को ही मजबूत बनाना तो नहीं। अगर युवाओं को कौशल विकास से जोड़ना है, औऱ उनके भीतर सामाजिक राजनीतिक क्षमता का विकास करना है। तो संसाधनों को मयस्सर करवाने के साथ शिक्षा प्रणाली में सुधार करना होगा। आठवीं तक फ़ेल न करने की संस्कृति को बदलना होगा। पाठ्यक्रमों में बदलाव करना होगा। साथ योग्य शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया पर बदलाव देना होगा। तभी कुछ शिक्षा क्षेत्र में बदलाव और नक़ल की प्रथा बन्द हो सकती है। आखिर में चर्चा सबसे महत्वपूर्ण बिंदु की। क्या तीन घण्टे में दी गई परीक्षा ही जीवन को सफ़ल बनाने की गारंटी हो सकती है। शायद नहीं, क्योंकि इस तरीके की परीक्षा प्रणाली में कुछ विसंगतियां हैं। पहली विसंगति यह कि एकबार जो लिख दिया गया, वह नक़ल से है, या अक्ल से। यह कोई डिजिटल युग मे भी सिद्ध नहीं कर सकता। दूसरी विसंगति यह कि जब सभी बच्चों की मानसिक अवस्था एक जैसी नहीं, फ़िर निर्धारित एक जैसा समय मिलना कहाँ का न्याय? तीसरी विसंगति यह कि रटन्त विद्या पर ज़ोर, प्रैक्टिकल का अभाव। फ़िर इन कमियों को दूर किए बिना कैसे मान लिया जाए, कि हमारी शिक्षा प्रणाली बेहतर काम कर रहीं है। अगर विदेशों में एक निर्धारित कक्षा के बाद, छात्र की रुचि के मुताबिक क्षेत्र की ही शिक्षा दी जाती है, तो फ़िर हमारे देश मे क्यों 12वीं तक सबको एक जैसा ही पढ़ना पड़ता है, चाहें उसे वैज्ञानिक बनना हो, या डॉक्टर?

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896