भाषा-साहित्य

अखबारों की भ्रष्ट भाषा

सुविख्यात वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने अखबारों में भ्रष्ट भाषा का जो मुद्दा उठाया है वह प्रासंगिक और सटीक है। इसमें दो राय नहीं कि पिछले कई सालों से हिन्दी की अखबारों में भ्रष्ट भाषा का प्रयोग हो रहा है। कई बार हिन्दी की व्याकरणिक संरचना गलत होती है और अब तो उसमें अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार होती है। ऐसा लगता नहीं कि वह हिन्दी है, बल्कि हिंगलिश होती है। वास्तव में हर तबके के लोग अखबार पढ़ते हैं। सामान्य पढ़े-लिखे या अशिक्षित मजदूर, किसान, दुकानदार, ड्राइवर आदि से ले कर पढे-लिखे और उच्च-शिक्षित वर्ग सभी इसे पढ़ते और सुनते हैं। इसलिए अखबारों की भाषा के पाठकों की बौद्धिक क्षमता के अनुकूल होने की अपेक्षा रहती है। यह अगर सरल, सर्वग्राह्य, सर्वजन सुलभ एवं सुबोध, प्रयोगधर्मी और लचीली होती है तो वह एक विशिष्ट रूप लेती है। इसमें प्रचलित शब्दों का विकास स्वयं होता है अथवा ये शब्द इस प्रकार प्रयुक्त होते हैं जो जन-सामान्य की समझ में आ जाते हैं।

अखबारों में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यावसायिक एवं वाणिज्यिक, वैज्ञानिक, क्रीड़ा, सिनेमा, धारावाहिक आदि सभी विषयों पर समाचार और रिपोर्टिंग होती है। इन्हीं विषयों के अनुरूप संवाददाता भाषा के विविध रूपों का प्रयोग करता है। भाषा के ये रूप न तो वैज्ञानिक होते हैं, न मेडिकल या तकनीकी होते हैं और न ही साहित्यिक होते हैं और न ही आमफहम भाषा होती है। यह भाषा इन सभी के बीच की होती है जो सभी वर्गों के पाठकों के लिए संप्रेषणीय होती है। इस भाषा का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक है, इस लिए लोक-व्यवहार में जिस भाषा का प्रयोग होता है उसीका प्रयोग इसमें करने का प्रयास रहता है। इसके वाक्य-विन्यास में व्याकरणिक शुद्धता और मानकता की अपेक्षा रहती है ताकि पाठक को भी भाषा के सही प्रयोग की जानकारी मिल सके। आज कल अखबारों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनमें भाषा के भ्रष्ट रूप मिलते हैं। व्याकरणिक अशुद्धता के अतिरिक्त अंग्रेज़ी के शब्दों का अधिक प्रयोग होने लगा है। मैंने स्वयं संगोष्ठियों, सम्मेलनों और अपने व्याख्यानों और लेखों में कई बार इस बारे में चर्चा की है।

यहाँ नव भारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण जैसे अखबारों की भाषा के कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं:

1. लाइफ इंशोरेंस फ़र्मों की लिस्टिंग चाहता है रेगुलेटर।

2. बिना हाल मार्किंग के नहीं बिकेगी गोल्ड ज्वेलरी।

3. रीडेवेलपमेंट में एन सी आर के 20 रेलवे स्टेशन।

4. एक तुर्किस्तान देश के एक शहर में।

5. फिल्म का बेसिक थॉट यह है कि जिस इंडियन हाई कमिश्नर का किडनैप हो जाता है वह फ़िजी के रिच आदमी राम कपूर का दोस्त है, इसलिए राम कपूर इन दोनों की वहाँ हेल्प करता है।

6. फिर लगने शुरू हुए तेज भागते पानी के मीटर।

7. कश्मीर में तैनात जो जवानों का विवरण मिला।

यह बानगी है जिसमें हिन्दी का भ्रष्ट रूप स्पष्ट दिखाई देता है। कहीं हिन्दी नहीं हिंगलिश दिखाई देती है तो कहीं संरचनात्मक अशुद्धि नज़र आती है। मैंने इन वाक्यों के सामने अखबारों के नाम जान-बूझ कर नहीं लिखे, किंतु उनके प्रमाण मेरे पास हैं। मैंने लगभग एक हज़ार वाक्य इकट्ठे कर रखे हैं जो मेरी पुस्तकों में उल्लिखित हैं। नव भारत टाइम्स जैसे कुछ अखबारों ने तो हिन्दी के स्वरूप को बिगाड़ने का जैसे बीड़ा उठा रखा है। इससे भाषा का विकास नहीं हो पाता, जो देश और भाषा-भाषी समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है और विदेशी भाषाओं को पनपने का मौका मिल जाता है। भाषा के शुद्ध स्वरूप और उसके मानक रूप को बनाए रखने और विकसित करने की ज़िम्मेदारी मुद्रित और इलेक्ट्रोनिक जनसंचार, विशेषकर अखबारों की भी है। वास्तव में जनसंचार और पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण में भाषा को महत्व नहीं दिया जाता। मैंने लगभग सभी विश्वविद्यालयों या जनसंचार संस्थानों में चल रहे पाठ्यक्रमों को देखा है जिनमें हिन्दी भाषा की व्याकरणिक संरचना, हिन्दी के विविध प्रयोग, हिन्दी के प्रयोजनमूलक पक्षों, मानक देवनागरी लिपि आदि के शिक्षण के लिए एक भी प्रश्नपत्र नहीं है। ऐसा समझा जाता है कि प्रशिक्षार्थी पहले से ही हिन्दी की शिक्षा ले कर आया है या वह पहले से हिन्दी में पारंगत है। ऐसे कई संवाददाताओं से, विशेषकर नए संवाददाताओं से, मेरा संपर्क है जिन्हें हिन्दी भाषा और उसकी संरचना का कम ज्ञान है। इस संबंध में जनसंचार संस्थानों और विश्वविद्यालयों को गंभीरता से विचार करना होगा। साथ ही डॉ. वेद प्रताप वैदिक, राहुल देव जैसे वरिष्ठ, सुधी और अनुभवी पत्रकारों को एक अभियान चलाना हो गा ताकि अखबारों में शुद्ध तथा मानक हिन्दी का प्रयोग हो सके और देवनागरी लिपि का सही एवं मानक रूप में इस्तेमाल किया जा सके।

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
महासचिव,विश्व नागरी विज्ञान संस्थान, गुरुग्राम-दिल्ली, मो: 0-9971553740