कविता

कविता – काठ का पुतला

कुछ दर्द है दबा हुआ
जो कुछ देर के लिए
बाहर आना चाहता है,
सीने के दरवाजे को
धीरे से खोलता है
बाहर को झांकता है,
चोर नज़र से कभी
दायें देखता है तो
कभी बायें देखता है
कभी ऊपर नीचे तो
कभी आगे पीछे…।
फिर चुपके से
पार करना चाहता है
उस दहलीज को
जो उसे कैद कर के
रखे हुए है।
कभी कभी उस कैद से
बाहर निकल जाता है
पर दहलीज़ के बाहर
कदम रखते ही
उसे बयां होने को
न तो शब्द मिलता है
और न तो भावनाएँ,
न तो आधार मिलता है
और न ही आयाम।
हार जाता है खुद से
और टूट के रह जाता है
खुद अपने-आप में।
मन मसोसकर
अपने बढ़े हुये कदम
पीछे खींच लेता है और
फिर उन्हीं चहरदिवारी में
जा कर कैद हो जाता है
जहाँ से बाहर आकर
आज़ाद फ़िजाओं की
यात्रा करना चाहता था,
यात्रा करना तो दूर..
शायद उसे अब ये
आज़ाद फ़िजाओं ही
कैदखाना लगने लगी थी,
पागल कुत्ते की तरह
काटने लगी थी.
इसलिए वो वापस अपने
उसी दुनियाँ में लौट कर
खुद को आज़ाद समझता है
और फिर उसी पुरानी
दर्द की पीड़ा में
घुट घुट कर जीता है
घुट घुट कर मरता है
और ज़िन्दगी के मुहाने पर
रख देता है वक्त की मार।
कुछ दर्द की यातना
और बना देता है मनुष्य को
एक काठ का पुतला।।

अतुल कुमार यादव

अतुल कुमार यादव

पेशा- साफ्टवेयर इंजी० रुचि : साहित्य लेखन-विधा : गीत, ग़ज़ल, नज़्म, मुक्तक, कहानी, कविता, उपन्यास।