सामाजिक

लेख– बच्चों की क्षमता और रुचि को ध्यान में रख दी जाए तालीम

पूरे देश में परीक्षाओं का दौर लगभग शुरू हो चला है। ये परीक्षाएं सिर्फ़ बच्चों के किताबी ज्ञान की परख नहीं करती, अपितु समाज और परिवार की भी परीक्षा लेती हैं। इस दौरान अगर छात्रों की आत्महत्या की दर बढ़ जाती है। फ़िर यक्ष प्रश्न यहीं, कि ऐसी शिक्षा का क्या अर्थ जो मौत दे रहीं? ऐसे में जो जिंदगी ही नम्बर का खेल भर है, उस परिवेश में अंको को ही सर्वश्रेष्ठ मान लेना, कहाँ कि समझदारी है। शिक्षा व्यक्ति के सर्वागीण विकास की वाहक है। हर व्यक्ति के लिए शिक्षा जरूरी है। परीक्षा से प्रतिस्पर्धा का भाव जगता है, जो चुनौतियों से लड़ने और अपने को परखने का माध्यम होता है, लेकिन कम अंक आना भविष्य निर्माण की दिशा में रोड़ा है, यह पर्याय ग़लत है। अगर बिना आग में तपे सोना कुंदन नहीं होता, उसी प्रकार परीक्षा में फ़ेल-पास होना भी उसी तपिश का हिस्सा भर है। न कि असफलता की गारंटी। यह समाज को समझना होगा। ऐसी आत्महत्याओं के कारक तत्व को अवसाद, तनाव और सांसारिक विरक्ति का नाम दे दिया जाता है, लेकिन इस विषय को दरकिनार कर दिया जाता है, कि शायद इन मौतों के पीछे का कारण शिक्षा पद्धति का तरीका सही न होना भी है।

आज सबसे बड़ी खामी हमारे शिक्षा तंत्र की यह हो गई है, कि सभी के साथ भेड़-बकरी की तरह व्यवहार किया जा रहा है। जब हर व्यक्ति की रुचि, रुझान अलग-अलग होता है, फ़िर उनको एक ही शिक्षा व्यवस्था के तले बारहवीं तक क्यों दबा दिया जाता है। क्यों शिक्षा के क्षेत्र में नवीनता नहीं लाई जा रहीं। छात्रों की मौत का ठीकरा भी सिर्फ़ सरकार के सिर फोड़कर समाज और परिवार अपने दायित्वों पर पर्दा डाल देता है। यह भी ग़लत है। छात्राओं की आत्महत्या के जिम्मेदार रहनुमाई व्यवस्था और परिवार दोंनो है। ऐसे में अगर सरकार की विफलता के चर्चे होते हैं, तो समाज औऱ परिवार की भूमिका पर भी मंथन होना चाहिए। मकरसंक्रांति की पूर्व संध्या को हैदराबाद से अखबारों के पन्नों की सुर्खियां बनती है, कि दसवीं के दो छात्र ने आत्महत्या कर ली, तो क्या पुलिस के द्वारा परीक्षा का दबाव समझते हुए रिपोर्ट दर्ज कर लेना काफ़ी है। शायद नहीं। ऐसे में अगर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है, कि प्रति घण्टे देश मे एक छात्र आत्महत्या का रहा है, तो सिर्फ़ उसे प्रधानमंत्री द्वारा तनावमुक्त होकर परीक्षा देने का मंत्र नहीं बचा सकता। 2016 के आंकड़े के मुताबिक साल भर के भीतर अगर साठे नौ हजार छात्र आत्महत्या करते हैं, तो स्थिति भयावह बनी हुई है। इससे निपटने का ठोस उपाय खोजना होगा।

मनोचिकित्सकों के मुताबिक अब सरकार औऱ समाज को इन छात्रों की आत्महत्या को रोकने के लिए सामूहिक पहल करनी होगी। लेकिन अगर क़ानून होने के बाद भी स्कूलों में मनोचिकित्सक की नियुक्ति होती नहीं, फ़िर सिर्फ़ क़ानून बना देने से भी सबकुछ सही दिशा में ही हो, ऐसा समझ आता नहीं। आज के दौर में जिस हिसाब से बेरोजगारी और छात्र आत्महत्याओं का चलन बढ़ रहा, तब शायद जरूरत नए विश्वविद्यालय की नहीं, शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की है। साथ में शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की तरफ़ ध्यान देने की है। इन उपायों से जहां छात्राओं की आत्महत्या में कमी आएंगी, वही एक भारत औऱ श्रेष्ठ भारत की कल्पना का बीजारोपण शिक्षा के क्षेत्र में भी हो सकेगा। आज शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की सख़्त ज़रूरत है, तो वर्तमान रहनुमाई सरकार उससे क्यों बिदक रही है। आज उच्च शिक्षा की अपनी समस्याएं हैं, जिसका निराकरण विश्वविद्यालय खोलने में नहीं, क्योंकि इसकी जड़ें बुनियादी शिक्षा से जुड़ीं हुई है। ऐसे में अगर पिछले साढ़े तीन वर्षों से अधिक समय में मौजूदा रहनुमाई व्यवस्था कोई बेहतर बुनियादी शिक्षा का प्रारूप नहीं ला पाई, फ़िर यह सरकार के नेक इरादों पर हस्तक्षेप करता है, क्योंकि देश के प्रधानसेवक ही दम्भ भरते रहते हैं, कि उनका चुनाव ही कड़े क़दम उठाने के लिए हुआ है। ऐसे में समझ तो यही आता है, कि विश्व गुरु बनने आदि की बातें सिर्फ़ भोथरी है।

आज हमारी बुनियादी शिक्षा छात्राओं पर अनेक तरह के दवाब डालती है। आज बच्चों पर भविष्य निर्माण औऱ अच्छे अंक लाने का परिवारिक और सामाजिक दोनों तरफ़ से दवाब रहता है। जो नही होना चाहिए, क्योंकि बच्चों की मानसिक क्षमता मापने का सही तरीका तीन घण्टे की परीक्षा हो ही नहीं सकती। जब किसी भी प्राणी का दिमाग औऱ कार्यक्षमता एक जैसी होती ही नही, फ़िर अंक कैसे निर्धारक बन जाते हैं, कि छात्र भविष्य में सफ़ल होगा कि नहीं। अगर आज बच्चों की क्षमता सिर्फ़ परीक्षा में अर्जित अंक से मापी जाती है, तो यह समाज औऱ सरकार दोनों की सामूहिक विफलता की निशानी है। हमारे देश में आज कितने उदाहरण होंगे, जो किताबी ज्ञान में अनपढ़ होने के बावजूद शीर्षस्थ पर काबिज़ हैं। फ़िर ऐसे में किताबी ज्ञान से अंक अर्जित भर कर लेने से बेहतर भविष्य की नींव नहीं डाली जा सकती। हाँ इसका मतलब यह भी नहीं कि पढ़ाई की उपेक्षा ही कर दी जाए, कहावत है, कि लोग विद्यालय में जाते दृष्टिहीन होकर, लेकिन निकलते दृष्टिवान बनकर। फ़िर पढ़ाई को सिर्फ़ नंबर तक ही सीमित क्यों किया जा रहा।

प्रधानमंत्री ने बच्चों को परीक्षा के दौरान तनावग्रस्त न रहने की सलाह देते समय बीते दिनों कई ऐसी बातें भी कहीं, जो हमारी शिक्षा प्रणाली हमें नहीं सिखाती। उन्होंने कहा, कि बच्चों को किसी ओर के जैसा बनने की कवायद करने के बजाय अपनी विशिष्टता पर ध्यान देने और उसे विकसित करने की आवश्यकता है। साथ में उन्होंने अभिभावकों को भी हिदायत दी कि वे बच्चों पर अपनी महत्त्वाकांक्षा न थोपे। बच्चों को अपनी अधूरी हसरतें पूरी करने का जरिया न समझें। ये सब ऐसी बातें हैं, जिन्हें दुनिया के महान शिक्षाविद और चिंतक पहले से कहते आए हैं। गर्व की बात है कि हमारे देश के प्रधानमंत्री भी इसी दिशा में सोचते हैं। लेकिन उन्होंने जो कुछ कहा है उस दिशा में शिक्षा प्रणाली को ले जाने का भगीरथ प्रयास कौन करेगा। यह अनुउत्तरित प्रश्न है। इसका जवाब कौन देगा। अगर विद्यार्थी परीक्षा से पहले और परीक्षा के दौरान तनाव में रहते हैं, तो क्या यह उनकी वैयक्तिक कमजोरी है, या इसका ज्यादा संबंध शिक्षा व्यवस्था और मूल्यांकन पद्धति से है? यह बताने की बात नहीं, जगजाहिर है। शिक्षा अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद से स्कूलों में बच्चे तो पहुँच रहे हैं, लेकिन स्कूलों में कैसी पढ़ाई-लिखाई हो रही। इसकी बानगी हर वर्ष गैर- सरकारी संगठन प्रथम की रिपोर्ट व्यक्त करती है। ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा को लेकर प्रथम की हालिया रिपोर्ट भी विचलित करने वाली ही है। जो बताती है, कि चौदह से अठारह साल के अधिकांश बच्चे अपने से निचली कक्षाओं में भी पढ़ने लायक नहीं। इसके साथ अगर अधिकतर राज्यों के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के अधिकतर पद खाली पड़े हैं। और प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय ठेके पर देश में शिक्षामित्र नियुक्त करने का चलन बढ़ा है, फ़िर बेहतर नम्बर, और बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की रुपरेखा कैसे तैयार हो सकती है।

आज के दौर में चिंता की एक बात यह भी है, कि अध्यापकों ने मार्गदर्शक का स्वरूप त्यागकर दिया है, औऱ संरक्षकों ने अपने कर्तव्यों औऱ उत्तरदायित्व को। आज माता-पिता जो ख़ुद नही कर पाए, वह बच्चों से करवाने की लालसा मां की कोख़ में से निकलने से पहले ही निर्धारित कर लेते हैं, जो इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी विडंबना है। आखिर हमारा समाज यह कैसे निर्धारित कर लेता है, कि अपने बच्चों को सिर्फ़ डॉक्टर ही बनाना है, हो सकता है, उसकी रूचि खेल में हो, नाचने-गाने में हो। फ़िर डॉक्टर बनाने की हसरत तो उसके ऊपर मानसिक दवाब ही डालेगी। तो क्यों न आज हमारी रहनुमाई व्यवस्था प्राथमिक पाठशाला की ऐसी नींव डाले, जिससे बच्चों की प्रतिभा औऱ रुझान का पता चल सके, फ़िर आगे की शिक्षा बच्चों को उसी क्षेत्र की दी जाएं, जिस क्षेत्र में उसका रुझान है। इसके साथ किताबों का अनावश्यक बोझ भी कम किया जाए, क्योंकि सिर्फ़ बारह तरीक़े की किताबें पढ़वा कर सभ्य औऱ कार्यकुशल व्यक्तित्व को तैयार नहीं किया जा सकता, अगर प्रायोगिक ज्ञान की कमी दूर नहीं होती है, तो।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896