बाल कविता

होता उल्टे काम का, गलत सदा परिणाम

मटकू गदहा आलसी, सोता था दिन-रात।
समझाते सब ही उसे, नहीं समझता बात॥
मिलता कोई काम तो, छुप जाता झट भाग।
खाता सबके खेत से, चुरा-चुरा कर साग॥
बीवी लाती थी कमा, पड़ा उड़ाता मौज।
बैठाये रखता सदा, लफंदरों की फौज॥
इक दिन का किस्सा सुनो, बीवी थी बाजार।
मटकू था घर में पड़ा, आदत से लाचार॥
जुटा रखी थी आज भी, उसने अपनी टीम।
खिला रहा था मुफ्त में, दूध-मलाई, क्रीम॥
उसके सारे दोस्त थे, छँटे हुए बदमाश।
खेल रहे थे बैठ के, चालाकी से ताश॥
मौका बढ़िया ताड़ के, चली उन्होंने चाल।
मटकू को लड्डू दिया, नशा जरा सा डाल॥
जैसे ही मटकू गिरा, सुध-बुध खो बेहोश।
शैतानों पर चढ़ गया, शैतानी का जोश॥
सारे ताले तोड़ के, पूरे घर को लूट।
बोरी में कसके सभी, लिये फटाफट फूट॥
बीवी आई लौट के, देखा घर का हाल।
रो-रो के उसका हुआ, हाल बड़ा बेहाल॥
मटकू को ला होश में, बतला के सब बात।
मारी उसको खींच के, पिछवाड़े पर लात॥
मटकू भी रोने लगा, पकड़-पकड़ के कान।
नहीं दिखाऊंगा कभी, ऐसी झूठी शान॥
सीख लिया मैंने सबक, पड़ा चुकाना दाम।
होता उल्टे काम का, गलत सदा परिणाम॥

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन