हास्य व्यंग्य

नानी का गांव

क्या हाल है भाई रमेश आज उदास लग रहे हो। घर में सब ठीक-ठाक है ना। हां भाई घर में तो सब ठीक ही है। फिर उदास क्यों हो घूरा ने पूछा, रमेश बहुत धीमी स्वर में बोला, क्या बताऊं यार। मेरी धर्मपत्नी हमेशा मेरे साथ रहने की कसमें खाती है। जिससे मर्ज़ी झगड़े मोल लेती है। यह जानते हुए भी कि मैं उनसे पार नहीं पा सकता, फिर भी मैं उसका साथ देता हूं, मेरे कुछ अपने लोग भी है जो मेरे हर समय में मेरा साथ देते हैं चाहे वे जिस लालच से मेरा साथ देते हो। लेकिन साथ देते हैं। चूंकि घर से लेकर बाहर तक उर्मिला ही मालिकन है। मुझसे ज्यादा सामाजिक राजनीतिक जिम्मेदारी उसकी बनती है, लेकिन जब भी कोई दुख पड़ आता है परिवार को छोड़ अपने मायके चली जाती है।

तुमको तो पता ही है कि हम रमुआ से जमीन का मुकदमा जीतने ही वाले थे । जीत जाने पर जमीन पर हमारी कब्जा भी हो जाती। तुम तो जानते ही हो जमीन की जीत कोई ऐसी वैसी जीत नहीं होती है बल्कि साख की जीत होती है शायद इसीलिए कहा गया है कि जर , जोरू , जमीन पर जो जीत पा लिया वह दुनिया को जीतने में काबिल भी है और माहिर भी। जर , जोरू , जमीन ये तीनों साख की लड़ाई होती है इस लड़ाई में अच्छे – अच्छे मजे पहलवान की हल्की सी चुक भी सामने वाले को जीत परोस देने में काफी हो जाता , लेकिन वह निश्चिंत हो गयी, यह सोचकर कि हम तो जीत ही गए हैं, अब तो हमारा ही राज होगा। लेकिन अगले ही पल वह मायके चली गई। और तब तक यहां सब कुछ पलट गया, रमूआ जमीन पर कब्ज़ा कर लिया और हम हाथ मलते ही रह गए।

उर्मिला जब बाद में मायके से वापस घर लौट आई तब मैंने उससे पूछा, फैसले आने के वक्त मायके क्यों चली गई थी? हमारा सारा परिश्रम बेकार हो गया। उस समय उर्मिला ने कुछ जवाब नहीं दिया, बोली समय आने पर सब कुछ बता दूंगी। इस बार फिर फैसला आने से पहले ही वह मायके चली गई थी। आज जब पुनः ऐसे मौकों पर बार – बार मायके जाने का कारण पूछा तो वह बहुत प्यार से मुझे समझाते हुए बोली, प्रियतम मैं खुशी से मायके नहीं जाती हूं, इसके पीछे का कारण तुम जानना चाहते हो तो सुनो- रमूआ से मुकदमा हम लोग लगभग जीत चुके थे, लेकिन उस जमीन पर कब्जा करने वाले लोगों की काफी संख्या थी। किसको देती और किसको नहीं। इसलिए मायके चली गई थी। इससे रमूआ को समाज में नीचा दिखाने का मौका भी मिला। इस बार भी मैं मायके इसलिए चली गई थी क्योंकि मुझे आभास हो चुका था कि फैसला हमारे हक में नहीं आने वाला है क्योंकि सामने वाला संख्या बल में भारी पड़ने लगा था । मैंने कहा लेकिन इससे हमारे चाहने वाले मित्र बंधुओं को भी निराशा होती है। क्या तुमने कभी इसके बारे में सोचने की जहमत उठाई है ? मैंने पूछा। उर्मिला कहने लगी, बिल्कुल सोचती हूं, और इसी कारण से मायके चली जाती हूं। ना मैं रहूंगी, ना मेरे पर जिम्मेदारी आयेगी। जब सब कुछ शांत हो जाता है, तब मैं आराम से लौट आती हूं।

इससे मेरे अन्दर की गुणवत्ता के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होता है । घूरा ने कहा तुम्हारी धर्मपत्नी तो हमारे देश के सबसे पुरानी पार्टी के राजकुमार व अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी की तरह है । वह भी अक्सर साख की लड़ाई में फैसले आने से पहले अपने नानी जी के घर चले जाते हैं। और इधर उनके कार्यकर्ताओं, समर्थकों को अपनी अपनी जवाबदेही स्वीकारने में नानी याद आने लगती है।

संजय सिंह राजपूत
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संजय सिंह राजपूत

ग्राम : दादर, थाना : सिकंदरपुर जिला : बलिया, उत्तर प्रदेश संपर्क: 8125313307, 8919231773 Email- sanjubagi5@gmail.com