राजनीति

लेख– प्रदेश की सूरत बदलने की दिशा में बढ़ रहे क़दम

उत्तरप्रदेश को उत्तमप्रदेश प्रदेश बनाने की बात का ज़िक्र होता है, तो उसको लेकर वर्षों से प्रश्न भी गूंजता है। वर्षों पूर्व से इस प्रदेश के लिए लोगों के दिल मे ऐसी मनोधारणा निर्मित हो गई है, कि इस प्रदेश का कुछ नहीं हो सकता। जिस धारणा को ओर मजबूती दिया, पिछले लगभग एक दशक से अधिक का क्षेत्रीय छत्रप शासन प्रणाली ने। जिस दौर में सूबा आकंठ भ्रष्टाचार औऱ प्रशासनिक स्तर पर बेलगामी का शिकार रहा। इतना ही नहीं, बीते कुछ वर्षों में उत्तरप्रदेश का पर्याय अपराध, गुंडागर्दी, लूट औऱ रहनुमाई दादागिरी का बनकर रह गया। जातिवादी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के अलावा जैसे सूबे के सियासी रहनुमाओं के पास कोई कार्य ही शेष नहीं बचा था। 22 करोड़ की आबादी वाला प्रदेश अंधकार की तरफ़ निकल पड़ा था। जो सूबे को सामाजिक रुप से बंजर व्यवस्था में बदलने के लिए काफ़ी हद तक जिम्मेदार रहा। सूबे में एक चौथाई से अधिक युवा जो प्रदेश का भविष्य हैं। उनके सितारें गर्दिश में जा चुके थे, क्योंकि इनमें से अधिकांश के हाथ को कोई काम नहीं मिल रहा था। आंकड़ों के पन्नों पर नज़र दौड़ाए, तो पिछली सरकार के दौरान उत्तरप्रदेश सरकार के विभिन्न रोजगार कार्यालयों में 14 लाख से अधिक युवा रोजगार के लिए पंजीकृत हो चुके थे। जिन्हें एक अदद नौकरी की दरकार थी। पिछली सरकार के आंकड़े भी कहते हैं कि प्रति एक हजार युवाओं में से 63 के पास कोई काम नहीं । अगर प्रदेश का हाल यह है, तो उत्तरप्रदेश के समकक्ष प्रश्न उठना लाजिमी है। ऐसा भी नहीं कि संसाधनों की दृष्टि से उत्तर प्रदेश देश के अन्य प्रदेशों के मुकाबले अकाल से पीड़ित हो, लेकिन पिछली सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी की वजह से सूबे में उपलब्ध संसाधनों का समुचित दोहन नहीं हो पाना चिंता की बात है। पिछले 25 वर्षों में उत्तर प्रदेश की आबादी अगर तीव्र गति से बढ़ी है, औऱ उस अनुपात में रोजगार सृजन के अवसर सूबे में उपलब्ध नहीं हुए। साथ में न तो कोई बड़े कल- कारखाने लगे। तो फ़िर प्रदेश तरक़्क़ी की राह पर कैसे चहलकदमी कर सकता है। अगर पिछले एक-दो शासनकाल को उठाकर राज्य सरकार का देखा जाए, तो कुटीर और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की दिशा में भी कोई ठोस पहल नहीं हो सकी। फ़िर सूबे में सामाजिक दृष्टि से अंतिम पँक्ति में खड़ा व्यक्ति विकास की सीढ़ी कैसे चढ़ सकता है, औऱ विकास की सीढ़ी समाज का हर तबक़ा चढ़ेगा, नहीं तो प्रदेश उत्तम औऱ विकसित अवस्था को कैसे प्राप्त करेगा। यह बड़ा प्रश्न खड़ा होता है। तो सरकार भले पिछले वर्ष सूबे की बदल गई है, स्थितियां तत्काल नहीं बदलती। उसके लिए दीर्घकालिक समय की जरूरत होती है। हां वर्तमान दौर में नई-नवेली सरकार जिस इच्छाशक्ति के साथ कार्य करती दिख रही, उससे लगता है, कि सूबे की तस्वीर बदल सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि बीते दिनों की दो परिघटनाएं सुधार की तरफ़ प्रदेश के बढ़ने की रुपरेखा बनाती दिखती हैं, जिसमें पहला योगी सरकार का दूसरे वर्ष का बजट औऱ दूसरा दो दिन चला इन्वेस्टर्स समिट है। सूबे की राजधानी लखनऊ में सम्पन्न हुई इन्वेस्टर्स समिट में उद्योग जगत की हस्तियों ने जिस हिसाब से बढ़- चढ़कर हिस्सा लिया, वह सूबे की चमकदार तस्वीर आने वाले समय में बना सकती है। जिसकी आहट अभी से आने लगी है, क्योंकि समिट के पहले दिन ही लगभग सूबे के बजट के बराबर 4.28 लाख करोड़ के निवेश सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुआ। जो सूबे को नया सवेरा देने की दिशा मे पर्याप्त है।

इस बार के बजट की विशेषताओं औऱ इन्वेस्टर्स समिट से सूबे की बदरंग तस्वीर बदलने की दिशा में क्या पहल हुई, उसको समझने से पूर्व यह समझना जरूरी है, कि इतिहास में ऐसा क्या हुआ, कि सूबा पिछड़ेपन की दहलीज़ पर आकर खड़ा हो गया। ऐसी चर्चा राजनीतिक गलियारों में हमेशा होती है, कि एक समय उत्तरप्रदेश और बिहार समृद्ध राज्यों की श्रेणी में शामिल थे। लेकिन फ़िर ऐसी जाति, धर्म की बेड़िया खींची, कि सूबे के लोग मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित रहने लगे। और विकास के रास्ते पर प्रदेश दूर-दूर तक दिखना बंद हो गया। धर्म, सम्प्रदाय की जकड़न में प्रदेश ऐसा आकंठ डूबा, कि भरपूर मात्रा में संसाधन औऱ मानव श्रम होने के बाद भी सूबा उदारीकरण का लाभ न प्राप्त कर सका। ज्यादातर वक़्त प्रदेश की सत्ता में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व होने के कारण सूबे की आर्थिक स्थिति चरमरा गई, क्योंकि इन दलों के पास जाति, धर्म के नाम पर अवाम को लामबंद करने के अलावा कोई नया विचार दिखा ही नही। आज के दौर में अगर 22 करोड़ की जनसंख्या के साथ उत्तरप्रदेश विश्व मे छठवें नंबर का सबसे बड़ा देश बन सकता है। फ़िर उसका अगर किसी क्षेत्र विशेष में योगदान नहीं, तो यह चिंता की बात रहनुमाई व्यवस्था औऱ समाज दोनों के लिए होना चाहिए। 1980 के दौरान जब बीमारू राज्यों की सूची तैयार की गई थी, तो उसमें बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान के साथ उत्तरप्रदेश को बीमारू राज्य की संज्ञा इसलिए दी गई थी, क्योंकि इन राज्यों के पास बुनियादी ढांचे का साफ़ अभाव था। तो अगर सबसे ज़्यादा 1.98 लाख करोड़ का निवेश बुनियादी क्षेत्र में किए जाने की बात स्पष्ट रूप से इन्वेस्टर्स समिट से निकलकर आई है, तो मतलब साफ़ है, कि स्थितियां अनुकूल रही तो सूबे के लोग बुनियादी सुविधाओं की कमियों से वंचित नहीं रहेंगे। इसके साथ समिट में अक्षय ऊर्जा और कृषि को भी अगर ध्यान में रखा गया है, तो यह समिट सूबे की अवाम के लिए वरदान साबित हो सकता है। प्रदेश के पिछड़ेपन और इसके बीमारू राज्य बनने में रहनुमाई व्यवस्था की चाल भी एक हद तक जिम्मेदार थी, नहीं तो एक समय ऐसा भी था, जब कानपुर जैसा शहर उत्तर का मैनचेस्टर के नाम से पुकारा जाता था। उत्तरप्रदेश के पिछड़ने की कहानी 1980 के दशक से शुरू हुई, जब उत्तरप्रदेश सियासतदां के लिए सिर्फ़ राजनीतिक प्रयोगशाला का अखाड़ा बनना शुरू हुआ। फ़िर अपनी हैसियत चमकाने के लिए क्षेत्रीय औऱ राष्ट्रीय स्तर के सभी दल सिर्फ़ अवाम को दिवास्वप्न दिखाकर सत्ता के मठाधीश बनने लगे। नब्बे के दशक में भी सूबे के पिछड़ेपन की कहानी उस दौर में भी जारी रही, जब देश उदारीकरण की नीतियों की तऱफ बढ़ रहा था। तब सूबे के पिछड़ेपन का कारण मंदिर-मस्जिद औऱ जाति-धर्म की बेड़ियों में उलझना था। जो कहानी अभी तक बद्दस्तूर जारी है।

आज के दौर के लोकतांत्रिक व्यवस्था की विकट स्थिति कहे, या दुर्भाग्य देश में हर बात को सियासी तराजू पर तौला जा रहा है। हर कोई सिर्फ़ यही आंकलन करने में मशगूल रहता है, कि फलां सामाजिक औऱ आर्थिक बदलाव किस दल के लिए कितना नफ़ा-नुकसान वाला साबित होगा। इस काम के सहारे सत्त्तासीन दुबारा सत्ता की वैतरणी पार कर पाएगा कि नहीं। लेकिन इस बात की समीक्षा कोई नही करता, कि किसी परिवर्तन से समाज का क्या नफ़ा-नुकसान होगा। अब आप उत्तरप्रदेश इन्वेस्टर्स समिट को ही ले, सभी समीक्षकों के दिमाग में एक ही बात चल रही, कि सूबे की सरकार के इस क़दम से कितना फायदा भाजपा को 2019 में मिलेगा। शायद यह कोई नही सोच रहा, कि पिछली भ्रष्ट औऱ आपराधिक प्रवृत्ति को शरण देने वाली पार्टियों की वजह से सूबे की दिशा औऱ दशा कैसी हो गई थी। प्राप्त संसाधनों के वावजूद सूबा विकास की दास्तां लिखने में काफ़ी पीछे छूट गया, तो मलतब साफ है, अभी तक सूबे के सियासतदां सिर्फ़ अपने लिए प्रकृति का दोहन किए, न कि जनकल्याण के बाबत। कमोबेश, सूबे का हाल हर क्षेत्र में एक जैसा ही है, जिसके घाव भरने के लिए कड़ा और सटीक दिशा में क़दम बढ़ाना होगा। पिछली सरकार तक सूबा खेल, पर्यटन, आर्थिक विकास सभी में काफ़ी पीछे रहा। आखिर ऐसा क्यों? जाहिर है संभावनाओं से भरे उत्तर प्रदेश में अवसरों की बेहद कमी रही है। जातिवाद की राजनीति में उलझे नेताओं की प्राथमिकता में विकास कहीं गुम सा रहना इसका बड़ा कारण है। ऐसे में अगर उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनना है तो अवसरों की उपलब्धता मुहैया करानी ही होगी। रोजगार और विकास को सहभागी बनाना होगा।

ऐसे में अगर आज उत्तरप्रदेश को जरूरत है, तो शासन स्तर पर संजीवनी की। बीते वर्षों में उत्तरप्रदेश अगर कहा जाएं, तो सिर्फ़ अपराध औऱ सामाजिक वैमस्यता का केंद्र बनकर रह गया था, जिस कारण से जनता ने पिछले वर्ष लंबे वक्त बाद राष्ट्रीय पार्टी को सत्ता सौंपी, जिससे सूबे में कुछ बदलाव दिख सके। तो सूबे की सरकार उस दिशा में बजट और इन्वेस्टर्स समिट के माध्यम से बढ़ रही है। फिर भले ही इस वर्ष के बजट से 2019 में होने वाले चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की गई है, लेकिन सूबे के विकास के लिए युवाओं, ग़रीब औऱ किसान केंद्रित बजट समय की मांग थी, जिस औऱ ध्यान देते हुए योगी सरकार के बजट में भी गांव, गरीब एवं किसानी पर जोर रहा। कहते हैं, दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है, तो यह सूबे का दुर्भाग्य ही रहा है। जिस कारण वह देश के लिए नौ प्रधानमंत्री देने के बाद भी आज विकास औऱ सुविधाओं के लिए तरस रहा है। ऐसे में जब बीते वर्ष नई सरकार का गठन हुआ, और केंद्र की सत्ता में भी उसी दल की सरकार है। फ़िर सूबे के लोगों की महत्वाकांक्षाएँ बढ़ गई है, कि इस बार शायद सूबे की तस्वीर बदल जाएं। उसी पर ध्यान केंद्रित करते हुए शायद खेती-किसानी और ग्रामीण विकास के लिए इस बार के बजट में विशेष प्रावधान किया गया है, तो वहीं युवाओं का रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से स्टार्ट अप योजना के लिए सरकार ने भारी भरकम रकम की व्यवस्था की है। अगर सरकार ने बजट में गांव-ग़रीब की बात की है, तो यह अच्छी पहल है, क्योंकि उत्तरप्रदेश ग्रमीण संरचनाओं का प्रदेश है। सूबे में विकास और युवाओं को रोजगार के काबिल बनाने के लिए योगी की सरकार ने वर्ष 2018-19 के लिए 4 लाख 28 हजार 384 करोड़ 52 लाख रुपए का बजट विधानसभा में पेश किया है। योगी सरकार का यह दूसरा बजट है। बजट घाटे का है, लेकिन अगर कोई नया कर नहीं लगाया गया है। तो यह भी स्वागतयोग्य सरकारी पहल मानी जा सकती है। इसके अलावा अगर सरकार ने कई नई योजनाओं की घोषणा की है। तो उम्मीदों का ढांढस बंधता दिखता है, कि आने वाला समय उत्तर प्रदेश के विकास की दृष्टि से काफ़ी महत्वपूर्ण रहने वाला है, फ़िर चाहें वह 2019 के आम चुनाव को देखकर सूबे में कार्य हो, या रहनुमाई व्यवस्था द्वारा सूबे को विकास के रास्ते पर लाने की इच्छाशक्ति।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896