धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर के अस्तित्व के कुछ प्रमाण

ओ३म्

संसार में दो प्रकार के मनुष्य है। इन्हें आस्तिक व नास्तिक नामों से जाना जाता है। आस्तिक उन मनुष्यों को कहते हैं जो यह मानते हैं कि संसार में ईश्वर नाम की सत्ता है जो हमें जन्म देती है और हमारी मृत्यु भी उसी के द्वारा होती है। दूसरे प्रकार के लोग नास्तिक कहे जाते हैं। वह यह मानते हैं कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है। अधिकांश वैज्ञानिक भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। वैज्ञानिक उसी चीज को स्वीकार करते हैं जो प्रयोगशाला में प्रयोग द्वारा सिद्ध हो। ईश्वर कोई ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसे भौतिक व रासायनिक पदार्थों की भांति प्रयोगशाला में सिद्ध किया जा सके। वैज्ञानिकों से इतर संसार में कार्ल मार्क्स चिन्तक व विचारक के शिष्य हैं जो वामपंथी कहे जाते हैं। यह सभी भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। हमें इस प्रकार के मनुष्यों की मान्यतायें व उनका व्यवहार सत्य के विपरीत अल्प व मिथ्या ज्ञान पर आधारित प्रतीत होता है। न तो पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने और न वामपंथियों में से किसी ने वेद पढ़े थे। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी जी ने भी वेदों का अध्ययन नहीं किया था। उनके समय में वेद पठन पाठन प्रायः समाप्त हो गया था। वेदों के मन्त्रों के मिथ्या अर्थ प्रचलित हो गये थे जिनसे अन्धविश्वास, अविद्या व सामाजिक कुरीतियों का जन्म हुआ था। अतः संसार में नास्तिक विचारों का प्रचार होता गया और संसार की एक बहुत बड़ी संख्या नास्तिक हो गई। जो लोग आस्तिक कहे व कहलाये जाते हैं वह भी ईश्वर को यथार्थ रूप में न जानने से पूर्ण नास्तिक न सही, अर्ध नास्तिक तो होते ही हैं। अतः ईश्वर के अस्तित्व के कुछ प्रमाणों पर दृष्टि डालना आवश्यक है।

ईश्वर के अस्तित्व का पहला प्रमाण ईश्वर का बनाया हुआ यह समस्त संसार अर्थात् ब्रह्माण्ड है। न तो विज्ञान के पास और न नास्तिक वामपंथियों के पास इस प्रश्न का समुचित उत्तर है कि यह संसार बिना ईश्वर के कैसे बन गया? संसार में छोटी से छोटी कोई वस्तु ऐसी नहीं है जो अपने आप बन जाती हो। घर में रोटी बनाने का सभी सामान रख दिया जाये, चूल्हा, ईघन, आटा, पानी, बर्तन आदि सभी कुछ हो परन्तु कोई (निमित्त कारण अर्थात् रोटी बनाने का जानकार मनुष्य) बनाये न तो करोड़ो व अरबों वर्ष में भी उन पदार्थों से रोटी अपने आप नहीं बन सकती। जब यह साधारण सी क्रिया अपने आप नहीं हो सकती तो अनेकानेक विविधताओं से भरा हुआ यह विशाल व सर्वोत्कृष्ट संसार कैसे बन सकता है जिसकी हर वस्तु मनुष्य आदि प्राणियों के हित व उपयोग के लिए बनाई गई है। सूर्य व पृथिवी बनाई है तो उसका प्रयोजन मनुष्य व अन्य प्राणी ही तो हैं। अग्नि, वायु, जल, प्रकाश, अन्न, वनस्पतियां, ओषधियां, फल, गाय, दुग्ध, चन्द्रमा सभी मनुष्य व प्राणियों के लिए ही तो बने हैं। किसको यह ज्ञान था वा हुआ कि मनुष्यों को बनाना है और मनुष्यों के लिए अनेकानेक पदार्थ भी चाहिये, उनको भी बनाना है, और यह सब बनें हैं, तो क्या यह अपने आप बने, कदापि यह सम्भव नहीं है। यह संसार एक अपौरूषेष्य, सत्य, चेतन, आनन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार, अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, नित्य सत्ता की रचना है। वेदाध्ययन सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर यह तथ्य हृदयंगम हो जाता है। यदि वैज्ञानिक और वामपंथी भी वेद और वैदिक साहित्य का निष्पक्ष भाव से अध्ययन करें तो उन्हें भी ईश्वर के अस्तित्व पर अवश्य विश्वास हो जायेगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं। हम यह भी अनुभव करते हैं कि यदि यह लोग सत्यार्थप्रकाश का ही निष्पक्षता और विवेकपूर्वक अध्ययन कर लें तो उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का बोध अवश्य हो जायेगा। ईश्वर है, यह सत्य व अकाट्य सत्य है।

ईश्वर के अस्तित्व का दूसरा प्रमाण है वेदों का ज्ञान। वेदों का ज्ञान भी अपौरुषेय है। मनुष्य के वश की बात नहीं कि वह विविध विषयों पर पूर्ण सत्य ज्ञान का प्रकाश कर सके। मनुष्य अल्पज्ञ है, अतः वह सृष्टि के आरम्भ में अपने कर्तव्यों को जानने व उन्हें पूरा करने के लिए किसी अन्य सत्ता से ज्ञान की अपेक्षा करता है। यह ज्ञान उसे सृष्टि के आदि काल में ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी से नहीं मिल सकता। ऋषि दयानन्द ने परीक्षा करके कहा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। विदेशी विद्वान मैक्समूलर ने भी वेदों की उत्पत्ति व ऋषियों द्वारा उनकी रक्षा के लिए किये गये अपूर्व उपायों की भूरि भूरि प्रशंसा की है और कहा है कि वेदोत्पत्ति से लेकर आधुनिक काल तक वेदों में कोई सूक्ष्म परिवर्तन भी नहीं कर सका है। वास्तविकता यही है कि ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है। वह मनुष्यों व अन्य प्राणियों की नित्य व अनुत्पन्न सनातन आत्माओं के भीतर भी कूटस्थ रूप से विद्यमान है। संसार को बनाने, चलाने, प्रलय करने सहित मनुष्य के लिए आवश्यक वेदों का ज्ञान भी उसके भीतर अनादि काल से विद्यमान है। वह मनुष्यों की आत्माओं में प्रेरणा द्वारा वेदों का ज्ञान देता है। शतपथ ब्राह्मण आदि प्राचीन ग्रन्थों व परम्परा के अनुसार ईश्वर ने चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा करके ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान भाषा व अर्थ सहित स्थापित किया था। तभी से वेदाध्ययन की परम्परा आरम्भ हुई। उसी परम्परा से यह ज्ञान ऋषि दयानन्द तक पहुंचा और उनसे हमें प्राप्त हुआ है। हमने वेद देखे व पढ़े हैं। हमारा विश्वास है कि जो भी मनुष्य ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित उनके वेदभाष्य को पढ़ेगा वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि वेद वस्तुतः ईश्वरीय ज्ञान है। यदि ईश्वर से वेद ज्ञान व संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त न हुआ होता मनुष्य सदा सदा के लिए अज्ञानी व मूर्ख ही रहता। इसके अनेक वैज्ञानिक प्रमाण हैं परन्तु स्थान व समयाभाव के कारण उन सब उदाहरणों का यहां उल्लेख करना सम्भव नहीं है।

ईश्वर के अस्तित्व का तीसरा प्रमुख प्रमाण मनुष्य आदि प्राणियों का जन्म-मरण व कर्मफल सिद्धान्त है। वेदों से हमें यह विदित होता है कि संसार में ईश्वर, जीव और प्रकृति यह तीन पदार्थ अनादि व नित्य हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ, एकदेशी, सूक्ष्म, अल्प शक्तिमान, जन्ममरणधर्मा, कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र है। यह स्वयं जन्म धारण नहीं कर सकता और न ही मृत्यु का वरण कर सकता है। मनुष्य की आत्मा के साथ एक सूक्ष्म शरीर भी होता है जिसे सृष्टि उत्पत्ति के समय परमात्मा बनाता है और प्रलय के समय प्राकृतिक विकारों से बना यह सूक्ष्म शरीर भी नष्ट हो जाता है। इस जीवात्मा को मनुष्य व अन्य प्राणी योनियों में जन्म देना व उनके कर्म फलों को व्यवस्थित कर न्याय करना आदि कार्य प्रकृति में देखे जाते हैं। इन कामों को करने वाला भी परमात्मा ही है। किसी मनुष्य या मनुष्य समूहों में यह शक्ति नहीं कि वह जीवात्मा को उनके कर्मों के अनुसार जन्म दे सकें व उनका पालन आदि कर सके जैसा कि ईश्वर करता है। यह भी ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है।

इस प्रकार से ईश्वर के अस्तित्व के अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं। विज्ञजनों के लिए एक ही प्रमाण निर्णय करने के लिए पर्याप्त होता है। हमने इस लेख में अनेक प्रमाण दिये हैं। पाठक स्वयं भी विचार कर अनेक प्रमाण जान सकते हैं। प्रचार की कमी के कारण ही नास्तिकता का प्रसार हुआ है। अब भी स्थिति यही है कि ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान रखने वाले विद्वान प्रचार के लिए आगे नही आ रहे हैं। हमें वह सब अविद्या से ग्रस्त प्रतीत होते हैं। ईश्वर स्वयं ही कृपा कर संसार को आस्तिक बनाने हेतु अपनी भूमिका निभायें जैसी कि उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति के आरम्भ में वेदों का ज्ञान देकर निभाई थी। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य