राजनीति

लेख– जनप्रतिनिधि क्यों भूल रहें, राजनीतिक शुचिता का पाठ

इस धरा पर हर कार्य का एक निश्चित विधान है, फ़िर अगर उसमें बदलाव हुआ तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। इसलिए जिसके लिए औऱ जिस स्थान के लिए जो कार्य निर्धारित हुआ। वह वहीं होना चाहिए, नहीं तो वह समय और संस्था अपनी साख खो देती है। आज स्थितियां कुछ बदल गई हैं, जिस कारण समाज में कुछ आधुनिक विसंगतियों का समावेशन हो रहा है। अब प्रदर्शन सड़क पर होने चाहिए। और बहस संसद में। लेकिन अगर उसके विपरीत कुछ हो रहा। फ़िर उससे समाज औऱ देश को लाभ तो होगा नहीं। आज अगर सियासतदां आकंठ अलोकतांत्रिक कार्यों को निष्पादित कर रहें, तो यह लोकतंत्र और संविधान की अवहेलना और तिरस्कार से तनिक कम नहीं। जिस कारण हमारी संसदीय परम्पराएं और उच्च लोकतांत्रिक आदर्श हाशिए पर जा रहें हैं। आज अगर सियासी मैदान में पठकथा अनर्गल बयानबाजी और जुबानी कड़वाहट की अपने चरम पर हैं, और मीडिया इसे हवा दे रहा है। तो व्यापक परिदृश्य में यह भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक इतिहास के लिए सबसे बुरे दौर की घटना मालूम पड़ती है। आज राजनेता भी अपना वावजूद खो रहे, क्योंकि अब सिर्फ़ संसद और विधानसभाओं से चर्चा ही जन मुद्दों पर नदारद नहीं हो रही,बल्कि संसद औऱ विधानसभा को भी लड़ाई का अखाड़ा बनाया जा रहा। जो लोकतंत्र के मुंह पर तमाचा मारा गया लगता है।

ये झगड़े-लड़ाई साबित करते हैं, कि संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा औऱ संयम को रहनुमाई व्यवस्था के लोगों ने शीशे की तरह चकनाचूर कर दिया है। संसद और विधानसभा में कार्य के घण्टे घट गए, वह चिंता की बात नहीं। बात तो यह कि लोकतंत्र की परछाई जहां पड़ती है, वहां बढ़ती कड़वाहटों ने संवाद का स्तर तो गिराया ही है, आपसी संबंधों पर भी तुषारापात किया है। संसद आपसी लड़ाई का अड्डा जो बनकर सामने आ रहा है। ऐसे में कहना तो सिर्फ़ इतना है, कि कहीं आज के दौर में संसद औऱ लोकतंत्र के मायने तो नहीं बदल गए हैं? जनसरोकार के मुद्दों को तिलांजलि देकर आपसी तू-तू, मैं-मैं की शरणगाह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था जो बन रही है। सदन चाहें विधानसभा हो, या राज्यसभा तत्कालीन समय में बहस का स्तर गिरा है। पर अगर सदन में आपसी झड़प और मारपीट पर हमारे गणमान्य उतारू हो जाए, तो यह लोकतंत्र को ओर शर्मिंदा करता है। गत दिनों गुजरात विधानसभा में जो घटना घटी, उसने सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं औऱ शुचिता को विखंडित करने का कार्य किया। गुजरात विधानसभा में कांग्रेस औऱ सत्तारूढ़ भाजपा के बीच जो हिंसक झड़प हुई, वह बताता है कि कहीं न कहीं लोकतंत्र का दिया मुरझा रहा है।

राजनीतिक समर में चर्चा इस बात की है, कि ऐसी घटना की शुरुआत किसने की। जबकि मूल विषय चर्चा का यह होना चाहिए, कि जनप्रतिनिधियों के बीच ऐसी हिंसक झड़प की नौबत ही क्यों आई। यह हमारे लोकतंत्र के कमजोर पहलू को उज़ागर करता है, कि जिस सदन का चुनाव जनता की भलाई औऱ जनमहत्व के मुद्दों पर बहस के लिए होता है, वे संसदीय औऱ लोकतांत्रिक व्यवस्था को शर्मिंदा करने का कार्य करते हैं। जब नीति-नियंता बेहूदी हरक़त करने लगेंगे, फ़िर देश का हाल क्या होगा। इस बात को सियासतदां क्यों बिसार देते हैं। सत्ता पक्ष औऱ विपक्ष को एक बात ओर ध्यान देनी चाहिए, जब वे सदन में ही बेलगाम हो जाएंगे, तो सड़कों पर उनके कार्यकर्ताओं से बेहतर औऱ लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरुप व्यवहार करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। वैसे अगर आज के लोकतांत्रिक परिवेश को देखते हुए यह कहा जाए, कि लोकतंत्र की मंदिर सिर्फ़ शोर-शराबे और हंगामे का अड्डा का पर्याय बनकर रह गया है। तो वह अतिश्योक्ति नहीं होगा।

अब अगर बात गत दिनों गुजरात विधानसभा में घटित दृष्टांत की हो, तो विधानसभा में विपक्ष के नेता जब हंगामे से बाज़ नहीं आए। तब विधानसभा अध्यक्ष ने मार्शल को उन विधायकों को बाहर भेजने का हुक्म दिया। इतने में एक माननीय इतने उत्तेजित हो गए, कि उन्होंने न आव देखा न ताव सत्ता पक्ष के विधायक पर माइक्रोफोन की रॉड दे मारी। इतने में भी उनकी इच्छापूर्ति नहीं हुई तो मुक्केबाजी भी कर दी। जैसे वे सदन में नहीं किसी ओलंपिक खेल के हिस्सेदार हो। स्थिति ऐसी निर्मित हुई कि मार्शल को ख़ुद आगे आकर विधायकों को नियंत्रित करना पड़ा। लेकिन लोकतंत्र शर्मसार औऱ सारी हदें तो उस वक्त भंजित हो गई, जब 10 मिनट विधानसभा स्थगन के बाद बाहर भेजे गए एक विधायक ने दूसरे दरवाजे से परिवेश करके पुनः हमला बोल दिया। लोकतंत्र के मंदिर में अगर ऐसी परम्परा बनती जा रही, हिंसक झड़प और शोर-शराबे की। तो इसको नियंत्रित करने की पहल होनी चाहिए। सदन देश में बदलाव की बहार लाने के लिए चर्चा का केंद्र है, न कि किसी का व्यक्तिगत घर जहाँ पर बेफिजूल की बहस औऱ टकराव हो।

ताज़ा मामले में कांग्रेस विधायकों को एक से तीन वर्ष के लिए निलंबित कर दिया गया है, लेकिन यह पहल इस तरीक़े की घटनाओं को रोकने के लिए एकदम सार्थक नहीं। आज जब हर राज्यों और लोकसभा में भी काम कम बकवास ज़्यादा औऱ आपसी टकराव जनप्रतिनिधियों के बीच अधिक देखने को मिल रहा। तो यहां दो बात स्पष्ट होनी चाहिए। जब काम सदन में होता नहीं, फ़िर अवाम के पैसे उन पर व्यर्थ क्यों फूंके जा रहे। दूसरा सदन नीति-निर्माण की जगह है, फ़िर ऐसी औछी हरकतें करने वाला का स्थायी रूप से निलंबन क्यों नहीं। गत दिनों ही तेलंगाना विधानसभा में बजट अभिभाषण के बाद किसी द्वारा फेंका गया हेडफ़ोन विधानपरिषद के सभापति के. स्वामी गौड़ा के आंखों पर जा लगा। उसके पूर्व बजट अभिभाषण के वक्त बजट की प्रतिलिपियाँ फाड़ी जा रही थी। ये सारी घटनाएं कोई नई नहीं। पहले से चली आ रही, लेकिन अब कुछ ज़्यादा बढ़ गई है। देश का सर्वोच्च सदन भी बजट सत्र में हंगामे औऱ शोर-शराबे का केंद्र ही बना रहा। ऐसे में सवाल तो बहुतेरे उत्पन्न होते हैं, लेकिन न उसके उत्तर चुनाव आयोग ही ढूढ़ता दिखता है, न ही इन अमर्यादित लोकतांत्रिक हरकतों से निज़ात दिलाने की दिशा में व्यापक स्तर पर क़दम बढ़ाता दिखता है। जब आम आदमी को बिना काम के पैसा नही मिलता फ़िर इन रहनुमाओं पर कृपा क्यों? जब मत फ़ीसद बढ़ाने की क़वायद की जाती है, तो उस मतदाता के लिए कार्य करने वाली रहनुमाई तंत्र पर दवाब डालने वाली नीति भी होनी चाहिए। इसके साथ जब देश में मत फ़ीसद बढ़ रहा है, औऱ जनप्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह न होकर अपने हित के लिए हिंसात्मक माहौल पर सदन में भी उतारू हो जाए, तो क्यों न राइट टू रिकॉल का अधिकार अवाम को दिया जाए। हां राइट टू रिकॉल से लोकतंत्र पर कुछ बोझ तो बढ़ेगा, लेकिन जनप्रतिनिधियों को यह प्रयोग गरिमामय व्यवहार करने और राजनीतिक व्यवस्था में जवाबदेह तो बनाएगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896