धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

लेख– हिन्दू नववर्ष अपने में समेटे हुआ सामाजिक औऱ ऐतिहासिक महत्व

किसी देश को विश्व परिदृश्य पर श्रेष्ठ उसे उसकी संस्कृति औऱ सभ्यता बनाती है। ऐसे में अगर हम विश्व का सफ़ल नेतृत्व करना चाहते हैं, तो अपनी सांस्कृतिक विरासत औऱ जड़ों को मजबूत और समृद्ध बनाना होगा। यह तभी होगा, जब हम अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाने के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कार्यशील होंगे। पर दुर्भाग्य है, हम विश्व का नेतृत्व करना चाहते हैं, स्वदेशी की बात करते हैं। पर अपनी विरासत औऱ पृष्ठभूमि को छोड़ उधार की संस्कृति औऱ रहन-सहन का तौर-तरीका ग्रहण करने की फ़िराक़ में लगे हुए हैं। ऐसे में हम विश्व के संचालनकर्त्ता कैसे बन पाएंगे? भारतीय नववर्ष की गरिमा और प्रतिष्ठा हमारे समाज में स्थापित करने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने एक बार यह उक्ति कही थी, कि यदि हमें गौरव से जीने का भाव अपने आप में जगाना है, और अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकीयों की दिनांकों पर आश्रित रहनेवाला अपना आत्म गौरव खो देता है। आज हम अपने गौरव औऱ इतिहास को बिसार कर दूसरों की संस्कृति से सम्मोहन कर बैठे हैं, तभी तो हमारा समाज पिछड़ता जा रहा है। फ़िर बात किसी भी क्षेत्र की हो।

अगर उदाहरण के रूप में समझें, तो जिस शिक्षा पद्धति पर आज ब्रिटेन और विदेशी देश चल रहें हैं, कि युवाओं को सिर्फ़ उस क्षेत्र विशेष का ज्ञान दिया जाए। जिसमें उसकी अभिरुचि है। तो यह व्यवस्था तो हमारे गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के आसपास ही नज़र आती है, लेकिन हम तो आधुनिक होने की फ़िराक़ में फंस गए हैं। जिससे स्वयं अपना नुकसान कर रहे। बात हम वैसे भारतीय नववर्ष की करते हैं। तब इसका मतलब बात चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से होता है। जिसे नव संवत्सर भी कहा जाता हैं। भले अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह अक्सर मार्च-अप्रैल के महीने से आरंभ होता है। पर भारतीय नववर्ष की शुरुआत ही ऐसे दिन के साथ होती है। जो संस्कृतिक और ऐतिहासिक कहानियों से अभिभूत है, जो समाज औऱ भारत को अन्य देशों से श्रेष्ठ बनाता है। फ़िर सवाल यहीं हम उधार की संस्कृति का एक जनवरी से आरंभ होने वाले अंग्रेजी नव वर्ष को इतना महत्व क्यों देते हैं। जो हमारी संस्कृति औऱ सभ्यता को चुराकर ही आगे बढ़ रहा है। हमें दूसरे की संस्कृति और विरासत का अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि हम बहुजन हिताय बहुजन सुखाय और वसुधैव कुटुम्बकम की बात करने वाले लोग हैं। पर यह भी न्याय योग्य नहीं की अपनी पुरातन बातों से इत्तेफाक रखना भूल जाए।

आज की हमारी पीढ़ी अंग्रेजी ग्रेगेरियन कैलेंडर को ही अपना समझकर हर्ष और उल्लास मानती है। तो यह साबित करता है, कि शायद उसे अपने गौरव औऱ सभ्यता का ज्ञान नहीं। हम बात तो हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान की करते हैं, लेकिन चलते अंग्रेजों की राह पर है। एक बार पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब किसी ने एक जनवरी को नववर्ष की बधाई दी तो उन्होंने कहा, किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नववर्ष से कोई संबंध नहीं। तो यह बात हमारी रहनुमाई व्यवस्था और हमारा समाज क्यों नहीं समझता। सबको नहीं तो बुद्धिजीवी औऱ सामाजिक रूप से सचेत लोगों को अपनी विरासत पर अभिमान कर उसको प्रसारित और प्रचारित करना चाहिए, नहीं तो आने वाली पीढ़ी को यह पता भी नहीं चलेगा, कि हम कितनी संस्कृतिक विविधता और समृद्ध संस्कृति के धनी रहे हैं। अगर इस भारतीय नववर्ष के ऐतिहासिक पहलू को देखें, तो दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंतिका पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। इसके अलावा विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ।

अगर भारतीय नववर्ष का पौराणिक महत्व देखें, तो यही दिन सृष्टि रचना का पहला दिन है। इसी दिन प्रभु राम ने लंका पर विजय प्राप्ति के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक के लिए चुना था। इसके अलावा धार्मिक महत्व में देखें। तो शक्ति और भक्ति की प्रतिमूर्ति मां दुर्गा के नौ रूपों की उपासना का पहला दिन भी यही है। तो जब आज की राजनीति रामराज्य स्थापित करने की बात करती है, साथ में स्त्री की अस्मिता को सुरक्षित रखने का दम्भ भरती है, तो भारतीय नववर्ष के पहले दिन को क्यों भूल जाती है, उस कैलेंडर को क्यों भूल जाती है, जिसकी बदौलत भारतीय नववर्ष की शुरुआत हुई थी। सामाजिक सरोकार से जोड़कर इस दिन को देखा जाए, तो सिख परंपरा के द्वितीय गुरू अंगददेव का जन्म इस दिन होने के साथ समाज को श्रेष्ठता के मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना दिवस की। इसके अलावा सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल भी इसी दिन जन्मे। साथ में अगर युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।

मतलब स्पष्ट है, यह दिन भारतीय संस्कृति में अद्वितीय स्थान रखता है। विक्रम संवत को नव संवत्सर भी कहा जाता है। संवत्सर पांच तरह का होता है जिसमें सौर, चंद्र, नक्षत्र, सावन और अधिमास आते हैं। विक्रम संवत इन पांच संवत्सर से मिलकर बना है। इस दिन महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा तो आंध्र प्रदेश में उगादी पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। इस दरमियान पेड़-पौधे अपने जीर्ण वस्त्रों को त्याग रहे होते हैं। प्रकृति अंकुरित-पल्लवित और पुष्पित होने की प्रक्रिया में होती है। खेतों में फसल कटने के लिए लगभग तैयार हो चुकी होती है, जो कृषक के चेहरे पर मुस्कान बरसाने वाली होती है। शीत ऋतु अपने समाप्ति पर होकर ग्रीष्म के आगमन का स्वागत करते हुए भारतीय नववर्ष का भी स्वागत करने के लिए उतावली दिखती है। तो आइए हम अपनी महान और गौरवशाली सनातन संस्कृति से जुड़े नव वर्ष के पहले दिन को उसी समर्पित भाव से मानना शुरू करें, जो अंग्रेजी कैलेंडर के लिए होता है। जिसके लिए हमारी नयी पीढ़ी को आगे आना होगा। कुल मिलाजुलाकर देखा जाए, तो यह नववर्ष जब जिसे ब्रह्मा ने सृष्टि का प्रारंभ करते वक्त प्रवरा तिथि सूचित किया। इस अर्थ में वह दिन हमें यह सिखाता है, कि हम अपने जीवन में जो भी काम करे, उनमें हमारा स्थान और हमारे कर्म लोक कल्याण की दृष्टि से श्रेष्ठ स्थान पर हो। जिससे देश समाज का हित हो सके। तो क्योंकि न इस दिन से इस संकल्प पर हमारा समाज और हम बढ़े। आप सभी को भारतीय नववर्ष की शुभ और मंगलकामनाओं के साथ।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896