सामाजिक

लेख– पढ़ाई के साथ खेल के महत्व को भी बच्चों को समझाया जाना चाहिए

दुनिया में जहाँ हम एक तरफ़ विकास के नित नए आयाम स्थापित कर रहें। वहीं कहीं न कहीं हम एकाकी जीवनशैली और संकुचित विचारों की बेल को समाज में जन्म दे रहें। स्थितियां ऐसी हो गई हैं, कि नैतिकी की बातें भोथरी हो गई हैं। या सिर्फ़ किताबों में ही समाहित हो गई है। जिनका सामाजिक जीवन से रिश्ता-नाता अगर उचट गया है, तो यह परिघटना एक सभ्य समाज के लिए उचित नहीं। आज के दौर में अगर हम कहें कि बचपना कहीं गुमशुदा हो गया है। तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगा। सूचना- प्राधौगिकी ने जहाँ बचपन की नटखट शरारतों से समाज को दूर किया है, वहीं समय के पहले बच्चों को वह सब ज्ञान उपलब्ध करा दिया है, जो उन्हे एक निर्धारित समय के बाद मिलना चाहिए। दुर्भाग्य ही है, लेकिन न आज के बच्चों को यह सब बुरा लगता है। न उनके परिजनों को। वे बचपन के गुम हो जाने को सामान्य प्रक्रिया मानते हैं, जो चिंताजनक स्थिति है। आधुनिक होते समाज के लिए। आज समाज विकृति मानसिकता की तरफ़ कूच कर रहा, रिश्ते-नाते कमज़ोर पड़ रहें, तो इसका सबसे बड़ा कारण नैतिक भावना का दुर्बल होना है। आज के बच्चे नैतिकी औऱ सामाजिकता का पाठ अपने घर से नहीं सीखते, बल्कि उसकी ख़ोज स्कूल और किताबों में की जाती है। आज के बच्चे समय से बड़े इसलिए हो रहें, क्योंकि उन पर पारिवारिक आकांक्षाओं का बोझ लादा जा रहा। फ़िर यह आकांक्षाएं कई तरह की हो सकती हैं। पारिवारिक या फ़िर सामाजिक। बच्चा जन्म नहीं लेता, उससे पूर्व ही निर्धारित कर दिया जाता है, कि वह डॉक्टर बनेगा, या इंजनियर। आख़िर यह कैसी रीति है। इतना ही नहीं प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना भी बच्चों में बचपन मे ही भरनी शुरू हो जाती है। कभी कभी तो यह भावना जागृति करने के लिए हीन भावना भी बच्चों के दिमाग में भरी जाती है। जैसे तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकते। पड़ोसी के बच्चे को देखो कितना होनहार है, और तुम गंवार ही बनें हो। ये सब बातें बच्चों को प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार तो कर देती है, लेकिन वह अंदर से कुंठित और असहज महसूस करता है।

ऐसे में अंकों की महत्ता के आगे बच्चों का शारीरिक विकास दांव पर लगा दिया जाता है। छोटी उम्र में ही कोचिंग का दवाब डाल दिया जाता है, नहीं तो कहीं बच्चा कक्षा में पिछड़ न जाए। जिस उम्र में खिलौने और दादी-नानी की कहानी से बच्चों को दुनियादारी और सामाजिकता का पाठ पढ़ाना चाहिए। उस उम्र में आज के समय में वह प्रतियोगिताओं के बोझ तले दबा दिया जाता है। अगर हम विकसित देशों की बात करें, तो वहां के बच्चे लगभग सात वर्ष की उम्र में स्कूल जाते हैं। इसके साथ उन नौनिहालों के सिर पर गृहकार्य और बस्तों का बोझ भी कम होता है। विकसित देशों में एक अनुमान के मुताबिक हफ़्ते में बच्चे 2.8 घण्टे गृहकार्य करते हैं। जबकि हमारे देश के बच्चों पर इतना गृहकार्य लाद दिया जाता है, कि बच्चों को थोड़ी देर हमउम्र के बच्चों के साथ बाहर जाकर खेलने का अवसर भी नहीं प्राप्त होता। ऐसे में अगर बच्चे दूसरे बच्चों के साथ खेलेगें-कूदेंगे नहीं। तो उनका शारीरिक और मानसिक विकास कैसे होगा। भाईचारा और सामाजिक का पाठ कैसे सीखेंगे। ऐसे में जब हमारी पुरातन शिक्षा पद्धति में बच्चों को स्कूल लगभग सात वर्ष में भेजा जाता था। साथ में बाहरी खेल-कूद के लिए माक़ूल अवसर प्रदान किया जाता था। जिस परम्परा को अगर अब वैज्ञानिक मान्यता वाले देश अपना रहें। फ़िर हम अपने बच्चों के बचपन से क्यों खेल रहे। पढ़ाई के नाम पर हम उनका बचपन क्यों छीन रहें। किताबी ज्ञान से ही दुनिया नहीं चलती, यह हमारा समाज क्यों भूल रहा। इसके साथ जब हर इंसान की अपनी एक विशेषता होती है, फ़िर आज के बच्चों को उनके परिजन ही भेड़चाल चलने के लिए विवश क्यों करते हैं।

हर बच्चा सभी क्षेत्रों में महारत हासिल नहीं कर सकता। फ़िर उस पर यह दबाव क्यों डाला जाता है, कि वह पढ़ाई के साथ हर प्रतियोगिता में भी अव्वल हो। यह दवाब बच्चों के विकास का प्रतिरूप नहीं बल्कि मानसिक अवसाद का रूप है। इस रवायत को अपनाने से समाज को बचना चाहिए। मानसिक अवसाद की तरफ़ आज का बचपन सिर्फ़ परिजनों की महत्वाकांक्षाओं से नहीं बढ़ रहा, बल्कि इसके अन्य कारण भी हैं। जैसे बाहरी दुनिया से रूबरू न हो पाना, जीवन में खेल के लिए पर्याप्त समय का अभाव होना। ऐसे में अगर आज के बच्चों को कठपुतली उपनाम दे दिया जाए, तो यह अतिश्योक्ति नहीं। परिजनों की महत्वाकांक्षा न सिर्फ़ बच्चों को अवसादग्रस्त बनाती है, बल्कि झूठ, फ़रेब और जालसाज़ी करने के लिए भी उत्प्रेरित करती है। इसके साथ कभी-कभी तो यही महत्वाकांक्षाएं बच्चों की आत्महत्या का कारण बनती है।ऐसे में आशाएं और इच्छाओं का जीवन में होना आवश्यक है, लेकिन किसी भी चीज़ की अति नुकसान दायक होती है। यह हमें और हमारे समाज को नहीं बिसारना चाहिए। इसलिए बच्चों के समुचित शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उसे पढ़ाई के साथ खेल-कूद से होने वाले फायदों से भी रूबरू कराना चाहिए। उससे भी बड़ी बात बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाएं लादने से समाज को बचना होगा, जो समाज और बच्चे दोनों के लिए आवश्यक है। साथ में बच्चों को शुरुआती दौर में घर पर ही नैतिकता की सीख दी जानी चाहिए, तभी बच्चें आगे चलकर बेहतर समाज निर्माण के वाहक बन सकते हैं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896