कविता

आजा मेल

आजा मेल आजा मेल
अब कितना इंतज़ार कराओगे

एक साल तो बीत गया
क्या अब अगले साल ही आओगे

सुबह रोज़ अनुमान लगाते
और हो जाते है फ़ैल

हम सब भी बेबस दीखते
जैसे है ये कोई अनोखा खेल

१० मेल तो रोज़ है आते
पर जो चाहे वो नहीं आते

जाने वाले तो चले गए
जो रह गए उनका हो गया खेल

हम सब को ये समझ नहीं आता
मार्च और मेल का कब
बैठेगा ताल मेल

रवि प्रभात

पुणे में एक आईटी कम्पनी में तकनीकी प्रमुख. Visit my site