सामाजिक

लेख– महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के कारण शर्मसार होती मानवता

बलात्कार एक संगीन अपराध है, लेकिन सिर्फ़ यही एक ज़ुल्म नहीं। जो पितृसत्तात्मक समाज में आदमी स्त्री समाज के साथ कर रहा। आज स्त्री समाज मानसिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित की जाती हैं। लैंगिक भेदभाव किया जाता है। इतना ही नहीं हम आज तकनीकी और शैक्षिक रूप से कितना भी सुदृढ़ हो गए हैं, सामाजिक नैतिकी उतनी की रसातल में जाती दिख रहीं है। वर्तमान दौर में सामाजिक परिवेश की कोई भी ऐसी परिभाषा नहीं बची है। जो लांछित न हो चुकी हो। दुनिया में भले ही हम अपनी चमक बना रहें हैं, लेकिन हमारी बहन-बेटियों की अस्मिता सड़कों पर लूट रही है। ऐसे में लगता यहीं है। हम मरे हुए समय में अपने आपको जीवित रखने का ढोंग रच रहें हैं। बेटियां और महिलाएं घर से लेकर कार्यस्थल तक, कार्यस्थल से लेकर सडक़ हर जगह असुरक्षित हैं। फ़िर समझ नहीं आता हम किस तरह के सामाजिक परिवेश में रह रहे हैं, और कैसे परिवेश को निर्मित कर रहें हैं। किस दिन, किस समय और किस स्थान पर ज़िक्र किया जाए। जहां पर महिलाएं और बच्चियां सुरक्षित है। अब तो हवशी होता समाज उम्र आदि की सीमाएं भी लांघ चुका है। नवजात से लेकर बुजुर्ग महिलाओं को भी समाज अपनी बुरी और हवशी सोच का शिकार बना रहा। फ़िर समझ नहीं आता, कैसा विश्व गुरु हमारा देश बन रहा। बीते दिनों छत्तीसगढ़ के कोरिया में एक तरफ़ नारी शक्ति की आराधना हो रही थी, कन्यापूजन चल रहा था। वहीं दूसरी तरफ़ एक नराधम आठ वर्षीय बच्ची के साथ वहशियाना कर उसकी हत्या कर रहा था, और अब कुछ दिनों बाद पुनः वैसी ही घटना का हमारे समाज में पुनरावृत्ति हुई। जगह अलग था। परिवेश अलग था। उम्र लगभग एक जैसी ही थी। इस बार जगह थी जम्मू कश्मीर कठुआ। यह शायद आज की रवायत बनती जा रही। जो सभ्य समाज के निकृष्टतम स्तर की ओर कूच कर जाने की बानगी पेश कर रहा है।

एक मंदिर का गर्भगृह, पावन-पवित्र स्थल, चार बलात्कारी। बच्ची सिर्फ़ आठ साल की नाबालिग। उसके साथ बर्बरता की गई, सामूहिक दुष्कर्म किया गया। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बलात्कारी होते समाज के कुछ चुनिंदा लोग मासूम बच्ची को भोजन की जगह बार-बार नशे की दवा पिलाते रहें, और अपनी जिस्मानी आग को बुझाते रहें। उनकी चेतना पर हवस सवार थी। मानवता को भूल चुके थे। शायद यह भूल चुके थे, उनके घर-परिवार में भी बहन-बेटी और मासूम बच्चियां हो सकती है। हमारा समाज शायद अब इससे ज़्यादा निकृष्ट और नीचे नहीं गिर सकता। मानवता तार-तार हो गई। इससे ओर नीचे गिरने का कोई कोर-कसर हमारे समाज ने छोड़ी नहीं है। इससे ओर अमानवीय और जघन्य हरक़त कोई सभ्य समाज की दृष्टि में हो नहीं सकता। बेशर्मी की पराकाष्ठा हो चुकी है, क्योंकि जिस पर राजधर्म के पालन की जिम्मेदारी होती है। वे अब बेतुके बयानबाजी और माननीय के संरक्षक बनते जा रहें हैं। हर घटना सियासी नफ़ा-नुकसान की दृष्टि से नापा जाता है। इतना ही नहीं सम्प्रदायिक रूप दिया जाने लगा है। हमारी राजनीति भी आज के जिस दौर से गुज़र रही। उससे नीचे रसातल में वह भी नहीं जा सकती, क्योंकि रहनुमाई व्यवस्था ज़िक्र बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ की करती है। लेकिन संरक्षित अपने माननीयों को करती है। इसके अलावा जो कैंडिल मार्च आधी रात को लेकर निकालते हैं, नियत तो उनकी भी सही मामूल नहीं पड़ती। शायद राजनीति का शुरुर उनपर भी छाया है, वरना निर्भया कांड तो उनके दल के शासनकाल में हुआ था, और अगर समाज आज अपनी मान-मर्यादा को घोटकर पी गया है। तो इसके लिए जिम्मेदार तो बीता राजनीतिक तख़्त भी रहा, क्योंकि कड़ा रुख़ इन अमानवीय हरकतों के खिलाफ उनके शासनकाल में भी दिखा नहीं। दिखा तो सिर्फ़ बेतुका बयानबाजी।

चिंता की घड़ी अभी भी है, समाज में बलात्कार की घटनाएं बढ़ रहीं। लेकिन देश का प्रधानसेवक मौन है। चिंता बढ़ इसलिए भी जाती है, क्योंकि आज वहीं सेवक मौन है। जो महिला सुरक्षा, महिला सम्मान, सुरक्षित मातृत्व आदि को लेकर बड़ी-बड़ी बातें और वायदे करता आया है। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के सांसद को अगर जम्मू- कश्मीर में नाबालिग बच्ची के साथ हुए रेप में पाकिस्तान का हाथ नज़र आता है। तो इससे बड़ा दुर्भाग्य उस लोकतंत्र का नहीं हो सकता। जिस लोकतांत्रिक देश के संविधान में बराबरी और महिलाओं को सुरक्षित माहौल आदि उपलब्ध कराने की बात की गई है। बलात्कार जैसी घटनाओं में पाकिस्तान का हाथ होने की बात कहना एक तरफ़ जहां सामाजिक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना है, तो दूसरी ओर सियासत में बचकानी हरक़त का सबूत पेश करता है। जम्मू कश्मीर जिसे धरती का जन्नत कहा जाता है, वहां कि लड़की के साथ बलात्कार करने में अगर मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी जिम्मेदारी वाले लोग भी शामिल थे। तो यह कहा जा सकता है, वे लोग इंसान की शक़्ल में भेड़िए थे।

ऐसा पहली मर्तबा देखने को मिल रहा, कि हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बलात्कारियों के साथ ख़ड़े दिख रहें हैं। इससे हमारे समाज की मानसिकता का पता चलता है हम कैसा समाज बना रहे हैं। आज अगर हम व्यवस्था पर ही अंगुली खड़ी करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लिए, फ़िर यह सही नहीं होगा। सवाल तो समाज पर भी ख़ड़े होना चाहिए, क्योंकि कल तक जिस गांव की बेटी को देश की बेटी कहा जाता था। वह समाज आज इतना निकृष्ट कैसे हो गया, कि वह आज बलात्कारियों के पक्ष में खड़ा होता दिख रहा है। आज अगर बच्चियों के साथ हो रहें घिनौने कृत्य को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा है। मतलब साफ़ है, ऐसी व्यवस्था को बदलने की दिशा में तत्काल नए सिरे से क़ायदे-कानून की आवश्यकता है। वरना यहीं धर्म का चश्मा समाज को रसातल में डुबो देगा। क्या कारण है, कि हमारे देश में आज़ादी के सत्तर वर्ष बाद और आधुनिक होते भारत में बलात्कार की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। एक स्वतंत्र आंकड़े के मुताबिक देश में होने वाले बलात्कार से जुड़ें सिर्फ़ 14 से 20 फ़ीसद केस ही दर्ज़ होते हैं। अब ऐसे में कल्पना करना मुश्किल हो रहा। अगर सभी केस दर्ज़ होने लग जाएं। फ़िर देश की क्या स्थिति होगी।

ऐसे में आज के दौर में महिलाओं के प्रति बढ़ रही दुराचार की घटनाओं के बीच कड़े कानून की मांग समाज मे पुनः जोर पकड़ रही। यह जरूरी भी है। पर अगर वर्तमान में हम अपना सामाजिक ताना-बाना देखें। तो कुछ सुधार तो पहले सामाजिक व्यवस्था में होना लाजिमी बन जाता है। आज हमारे समाज में अश्लीलता की विषबेल हर जगह फैल गई है। घर से लेकर बाहर तक। गांव से लेकर शहरों तक। जिसका उत्तरदाई टेलीविजन पर चलने वाला विज्ञापन आदि हैं। जिसके लिए जिम्मेदार हमारी लोकशाही व्यवस्था भी है। जिसकी मौन स्वीकृति के कारण ही टीवी सीरियलों, विज्ञापनों और फिल्मों के माध्यम से समाज और युवा पीढ़ी के सामने अश्लीलता परोसी जा रही है। आज अगर विज्ञापनों को इस हिसाब से बनाया जा रहा, जो लोगों को आकर्षित कर सकें। फिल्मों में आइटम नम्बर लगवाएं जा रहें। तो बिगड़ते सामाजिक परिवेश के लिए ये बातें भी जिम्मेदार हैं। हम एक विज्ञापन का उदाहरण लेकर समझें, तो पानी के विज्ञापन को व्यक्ति-विशेष के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने के क्या निहितार्थ। शायद उससे जनमानस प्रभावित हो। इसलिए विज्ञापनों की भाषा आदि बिगड़ता जा रहा। आज अगर हमारा देश नैतिकता के क्षेत्र में औंधे मुंह पड़ा दिखाई पड़ रहा, तो इसका कारण यह है, कि आज के दौर में सरकार और संस्कृति की महानता का पाठ पढ़ने वाली सरकारें भी मौन-व्रत पर हैं। बलात्कार जैसी घटनाओं पर काबू पाने की दिशा में आज के वक़्त में रहनुमाई प्रयास सिर्फ़ किसी पेड़ से पत्तियां छांटने जैसा है। जड़ पर कोई वार नहीं हो रहा। विकास और आधुनिकता के नाम पर नैतिक मूल्यों का शीघ्रपतन होने का परिणाम सबके सामने है। उसके साथ वर्तमान दौर की रहनुमाई सुस्ती ने बच्चियों के अस्तित्व के लिए ख़तरा उत्पन्न कर दिया है। कहते हैं, समस्या का समाधान रोग की जड़ पर वार करने से होता है, तो हमें अपने नैतिक मूल्यों को अंगीकार करना होगा, साथ में कठोर से कठोर सज़ा का प्रावधान क़ानून व्यवस्था द्वारा करना होगा, तभी हमारे हवशी होते समाज में बेटियां सुरक्षित महसूस कर सकेंगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896