कविता

आशा की पीठिका

बिजली ऐसी चमकी जैसे,
मानव के उर आशा,
छाया चारों ओर अंधेरा,
मानो घोर निराशा.

तिमिरांचल में छिपी हुई हो,
जैसे कोई दूती,
भू को आती है लेकिन वह,
पृथ्वी को नहीं छूती.

देती है संदेश वह प्यारा,
आशा-संग जीने का,
मुसीबतों को दूर हटाने,
साहस से जीने का.

आप्लावित है सारी धरती,
काले-कजरारे बदरा से,
आच्छादित है जल-थल सारा,
काली कजली के आंचल से.

पर प्राची के रव की लाली,
स्वर्णिम होकर बहती है,
मानव के उर की आशा को,
हो निःस्तब्ध निरखती है.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “आशा की पीठिका

  • लीला तिवानी

    ज़िंदगी एक पेंटिंग

    ज़िंदगी एक पेंटिंग की मानिंद है,
    आशा से इसकी रेखाएं खींचिए,
    सहनशीलता से इसकी त्रुटियों को मिटाइए,
    असीम धैर्य के रंग में इसके ब्रुश को डुबोइए,
    और
    प्रेम से इसमें प्रेम के रंग भरिए.

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