सामाजिक

लेख– पृथ्वी को संरक्षित रखने में ही हमारा अस्तित्व निहित

हाल ही में पृथ्वी दिवस मनाया गया। यह एक ऐसा प्रतीक दिवस है। जिस दिन हम पृथ्वी को बचाने और उसके साथ मानवीय व्यवहारों में परिवर्तन लाने की बात करते हैं। वैसे अगर इतिहास के झरोखों में देखा जाएं, तो पहली मर्तबा पृथ्वी को बचाने का प्रयास 1970 में किया गया था। जिसका नेतृत्व किया था, अमेरिका के पूर्व सीनेटर गेराल्ड नेल्सन ने। जिनका मानना था, कि अगर हम समय रहते पृथ्वी को संरक्षित करने के लिए आगे नहीं आए। तो मानव समाज का वजूद ख़तरे में पड़ जाएगा। पर शायद उनकी बात पर व्यापक दृष्टिकोण से न विचार-विमर्श उस दौर में किया गया, और न ही व्यापक स्तर पर लोग पृथ्वी संरक्षण के लिए आगे आएं। ऐसे में यह कह सकते हैं। अगर उसी दौर में पृथ्वी को संरक्षित करने के लिए जनमुहिम निकल पड़ती, तो आज की भयावह स्थिति से देश और समाज बच सकता था। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर आज यह दावा किया जा रहा, कि आगामी पचास वर्षों में दुनिया उजाड़ जाएगी। तो उसके लिए जिम्मेदार मानव समाज ही है। पृथ्वी सूक्त में वैदिक ऋषियों ने कहा है, कि पृथ्वी हमारी मां है, और हम उसकी संतानें है। इसलिए हम पृथ्वी को धरती माता कहते हैं। अगर हमारी मां हमारी इच्छाओं को पूर्ण करती है। तो धरती माँ भी हमें रहने के लिए स्थान, खाने के लिए अन्न आदि उपलब्ध कराती हैं। इतना ही नहीं अगर हमारा जीवन सुंदर, समृद्ध और बेहतर बनता है। तो उसकी उत्तरदायी हमारी धरा ही है। पृथ्वी हमारी धरोहर है, इसके बिना मानव समाज के अस्तित्व की कल्पना करना शायद बेईमानी होगा। इसलिए इसकी रक्षा करना हमारा परम् कर्त्तव्य होना चाहिए।

मानव समाज अपनी शक्ति और सामर्थ्य से पैसा भले अर्जित कर सकता है। पर वह प्रकृति की धरोहर को तनिक भी बढ़ा नहीं सकता। ऐसे में मानव जीवन की पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए, कि वह प्रकृति संरक्षण को अपने दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बनाए। अगर मानव अपने आपको बेहतर दिखाने के लिए महंगे क्रीम-पावडर लगा सकता है। फ़िर जिस जगह पर वह रह रहा । उसको संरक्षित करने के लिए उसे आगे आना होगा। नहीं तो अगर प्रकृति वह अपनी विनाशकारी प्रवृत्ति प्रदर्शित करने लगी , जिसकी शुरुआत हो चुकी है। तो उसका जिम्मेदार हमारा समाज ही होगा। और अगर हम पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड में आई त्रासदी की करें। या तमिलनाडु में आए बाढ़ की। या बुंदेलखंड और विदर्भ क्षेत्र की जो आए दिन सूखेपन से मानव जीवन में समस्याएं भर रहें हैं। तो समझ यही आता है, प्रकृति ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तुएं सीमित है। हमने जबसे याद सम्भालीं है तब से यही देखते और सुनते आ रहें हैं। अपने दादा-नानी के वाणी से, कि पृथ्वी हमारी माता है। इतना ही नहीं उनको सुबह बिस्तर से उठते वक़्त पृथ्वी का पांव छूते हुए भी देखा है। पर बिडम्बना देखिए कभी अपने घर-परिवार में सिखाई गई बात को दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं बना पाए। पर अब वक्त के साथ धरती मां ख़ुद पुकार रहीं, कि उनके दिल को चीरे जाने से बचा लिया जाए।

वैसे किसी देश, समाज और सभ्यता की उन्नतिशीलता की पहली प्राथमिकता शायद यहीं है, कि वह हर पैमाने पर अग्रणी हो। वहां के लोग खुशहाल और समृद्व हो। अफ़सोस हो रहा है। आज के तत्कालीन व्यवस्था पर विचार-विमर्श करने के बाद, क्योंकि यह विमर्श समाज का एक ऐसा रूप प्रदर्शित करता है। जहां पर आधुनिकता के नाम पर धरती मां का कलेजा आए दिन नोचा जा रहा। सीने पर आग धधकती हुई जलाई जा रहीं। वह भी सिर्फ़ किस लिए। सामाजिक जीवन स्तर को ऊंचा उठाने और समृद्ध बनाने के लिए। इस धरा की कोई सबसे अनमोल वस्तु है। तो उनमें जल और वायु निहित हैं। ऐसे में अगर आए दिन धरा के आंचल से सितारे रूपी पेड़ कम होते गए। तो मानव-जीवन चक्र ख़तरे में पड़ जाएगा। यह जानते और समझते हुए भी अगर हमारा समाज अपने जीवन के साथ खेल रहा अनजान बनकर। फ़िर पोथी पढ़ने का कोई विशेष अर्थ नहीं दिखता। आज का आधुनिक और डिजिटल होता समाज और व्यवस्था यह क्यों नहीं सोचती अगर वन नही रहे तो शुद्ध हवा कहाँ से आएगी। पेड़ नहीं रहे तो तो वर्षा में अनियमितता आएगी। भूक्षरण होगा सो अलग। ऐसे में अगर आज के वक्त में मीडिया रिपोर्ट्स यह कहती हैं, कि पटना, बनारस और झारखंड में कुछ गांव ऐसे हैं जहाँ पानी में फ्लोराइड व आर्सेनिक की अधिकता के कारण 70 फ़ीसद बच्चे विकलांग पैदा होते हैं। इसके अलावा अगर आंकड़े बताते हैं, कि पांच वर्ष से कम उम्र तक के बच्चों की 3.1 प्रतिशत मौत और 3.7 प्रतिशत विकलांगता का अहम कारण प्रदूषित पानी ही है। तो यह देश के सामने एक बड़ी समस्या थी ही, अब वनों के कम होने से कई तरीके की ज्वंलत समस्याएं और भी पैदा हो रहीं। जो सिर्फ़ मानव जीवन के लिए संकट की स्थिति ही पैदा नहीं कर रही। बल्कि अपने शुरुआती दौर में संकेत दे रहीं, कि समाज और व्यवस्था सुधर जाएं।

वरना पृथ्वी के साथ बढ़ती बलात्कार की घटना मानव समाज को भी एक दिन ले डूबेगा। आज हम जिस आधुनिकता की ख़ातिर प्रदूषण आदि से समझौता कर बैठे है। उसने पूरे जीव-जगत को अपने आगोश में समाहित करना शुरू कर दिया है। गम्भीर और लाइलाज बीमारियों का आकंठ साम्राज्य स्थापित हो रहा है। जिसके कारण लोगों में तनाव बढ़ रहा। जीवन जीने की अवधि कम हो रही। आज जो स्थिति प्रदूषण को लेकर वैश्विक परिदृश्य में निर्मित हो रही। उससे तनिक भी अछूता हमारा देश नहीं। हमारे देश में अगर वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक प्रति घण्टे 206 लोगों की मौत दूषित हवा के कारण हो रही। साथ में 73 लोग देश में प्रति घण्टे स्वच्छ पानी ने मिलने के कारण मौत को गले लगा रहे। तो अब हमें पृथ्वी को संरक्षित करने के लिए एसी और कूलर के कमरों से बाहर निकलकर पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ हवा की व्यवस्था करना होगा, क्योंकि वर्तमान समय में देश के हर व्यक्ति के हिस्से में सिर्फ़ 24 पेड़ बचें है। जो संख्या की दृष्टि से काफ़ी कम है। वैसे भी आँकड़े कहते हैं, कि एक पेड़ से इतनी छाया प्राप्त होती है। जो पांच एयर कंडीशनर बीस घंटे लगातार चलने पर दे पाते हैं। फ़िर हमारा समाज अगर आधुनिकता की आड़ में पेड़ों को कटने से तत्काल बाज नहीं आया, तो समस्याएं बढ़ना लाजिमी है। अगर वैज्ञानिक अध्ययन यह प्रमाणित करते हैं, कि सिर्फ़ और सिर्फ़ 93 घन मीटर में लगा वन आठ डेसीबल ध्वनि प्रदूषण को दूर करता है और एक हेक्टेयर में लगा वन बीस कारों द्वारा पैदा कार्बन डाईआक्साइड और धुएं को अवशोषित करता है। फ़िर वन किस तरह हमारे जीवन को सुगम और सरल बनाता है। यह पढ़े-लिखे समाज को कोई बताने और समझने की बात नहीं।

तो ऐसे में अगर हमें इस धरा को मानव-जीवन के अनुकूल बनाएं रखना है, और आने वाली पीढ़ी को बेहतर और अनुकूल वातावरण देना है। तो हमें और हमारे समाज को आधुनिकता का जो भूत सिर पर छाया हुआ है। उसे उतार कर प्रकृति की गोद में लौटना होगा, क्योंकि अनियोजित और असंगठित विकास प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बनता जा रहा है। प्रदूषण का दंश, बच्चें, बूढ़े सभी देश मे झेल रहें हैं। इसलिए उस पर नियंत्रण आवश्यक है। इसके अलावा अगर हम आरोप-प्रत्यारोप के इस दौर में हर पैमाने पर काफ़ी पीछे छूटते जा रहें। जो एक स्वस्थ समाज के लिए अच्छी बात नहीं। हमें इस व्यूहचक्र से भी बाहर निकलना होगा। और यह देखना होगा, कि हम किस चीज़ की तलाश में निकले थे। उसमें हमारी भूमिका क्या थी। तभी एक बेहतर और स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है।

स्वच्छ हवा, स्वस्थ जीवन की पहली आवश्यकता है। इसलिए हमें भारी संख्या में पेड़-पौधे सिर्फ़ लगाने ही नहीं होंगें। उनको संरक्षित भी करना होगा। धरती माता जब स्वस्थ रहेंगी। तभी हमारा अस्तित्व रह पाएगा। आज के दौर में हमारे देश में शिक्षा का स्तर और जागरूकता बढ़ रही है। पर अगर हम यह कहें, कि यह जागरूकता सिर्फ़ अधिकारों की बात रखने में ही सहायक सिद्ध हो रही। तो यह ग़लत नहीं, क्योंकि उत्तरदायित्व और कर्तव्यों की भावना तो जैसे लोगों में कमतर होती जा रही। ऐसे में अगर हम पर्यावरण प्रदूषण से पृथ्वी को बचाने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते। तो इतना तो कर ही सकते है, कि हम पॉलीथिन का उपयोग बंद करें, कागज़ का उपयोग कम करें। साथ में रिसाइक्लिंग प्रक्रिया को बढ़ावा दें, क्योंकि जितनी अधिक मात्रा में ख़राब वस्तुएं रिसाइकिल होंगी। उतना ही पृथ्वी सुरक्षित और प्रदूषण मुक्त होगी। वन क्षेत्र में वृद्धि करने के लिए संकल्पित हो। भूजल का संरक्षण और वर्षा जल का संचयन करना हमारी आदत का हिस्सा बने। साथ में बढ़ती गाड़ियों की संख्या सीमित करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनें, और हम सार्वजनिक यातायात का उपयोग करें। जिससे पृथ्वी की आत्मा दूषित और छलनी होने से बच पाएगी, और मानव जीवन सुरक्षित होगा। ऐसे में अगर अमेरिका में पृथ्वी दिवस को वृक्ष दिवस के रूप में मनाया जाता है। तो हमारे देश को भी पृथ्वी दिवस को वृक्ष दिवस के रूप मे मानना चाहिए। साथ में दिवस सिर्फ़ एक दिन का दिखावा न बनें। इसे रोज़ मानना चाहिए हमारे देश और समाज को। साथ मे पेड़-पौधे लगाकर पृथ्वी को हरा-भरा बनाए रखना चाहिए। जिससे तमाम तरीक़े का प्रदूषण और धरा को आघात पहुँचाने वाली समस्याओं का निदान हो सके।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896