सामाजिक

स्त्री व शूद्र शिक्षा के सन्दर्भ में सत्यार्थप्रकाश का मत

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी अनिवार्य शिक्षा का समर्थन करते हैं और इसके लिए स्वामी जी यह दायित्व माता-पिता को सौंपते हैं। वे चाणक्य के उस प्रसिद्ध श्लोक – ‘माता शत्रुः पिता वैरी…’ को उद्धृत कर यह स्पष्ट कर देते हैं कि जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को प्रशिक्षित नहीं किया उन्होंने अपने सन्तानों के साथ शत्रुवत् व्यवहार किया है, क्योंकि इस प्रकार शिक्षा से हीन सन्तान शिष्ट एवं सभ्य पुरुषों की सभा में उचित सम्मान एवं स्थान प्राप्त नहीं कर सकती। माता-पिता के दायित्व का उल्लेख करने के पश्चात् स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास के आधार पर बच्चों को गुरुकुल में प्रवेश करने का संकेत करते हैं। इस प्रसंग में वे लिखते हैं कि – ‘इसमें राज-नियम और जाति-नियम होना चाहिए कि पाँचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज दे, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास)
यहां पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने बालक और बालिका में तनिक भी भेद नहीं किया, अर्थात् स्त्रियों की शिक्षा के लिए स्वामी दयानन्द जी ने बहुत प्रयास किया। इस अध्ययन का आरम्भ स्वामी दयानन्द जी उपनयन संस्कार से मानते हैं, जो बालक को पितृ-ऋण तथा आचार्य-ऋण से उऋण होने का सन्देश देता है। गुरुकुलावास ही इस तथ्य की स्वीकृति है कि बालक के सर्वविध विकास में गुरुकुलीय पर्यावरण कितना महत्व रखता है। गुरुकुल में आने के उपरान्त बालक व बालिकायें अब केवल अपने शिक्षकों का सान्निध्य पाकर सर्वतोभावेन अध्ययन के लिए स्वयं को समर्पित कर देते हैं। यहां उसे एक ऐसा स्वच्छ निर्मल वातावरण मिलता है जो उसके सर्वविध विकास में सर्वाधिक सहायक सिद्ध होता है।
गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी किस प्रकार पठन-पाठन क्रम को अपनाता है उसका स्वामी दयानन्द जी ने विस्तार से उल्लेख किया और साथ-साथ विद्यार्थियों के खान-पान, रहन-सहन तथा उनकी दिनचर्या का भी मनुस्मृति के आधार पर विवेचन किया है। अध्ययन की यह अवधि पर्याप्त लम्बी होती थी। अध्ययन की समाप्ति पर आचार्य का शिष्य के प्रति जो आदेश और अनुशासन है उसे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने तैत्तिरीय उपनिषद् के आधार पर प्रस्तुत किया है। इसमें जहां सत्याचरण, धर्माचरण, स्वाध्याय में निरत रहने का उपदेश है वहां यह तथ्य अत्यन्त स्पष्टता से अंकित कर दिया गया है कि शिष्य को चाहिए कि वह अपने आचार्य के प्रशस्त कर्मों एवं आचरणों का ही अनुकरण करे, उनके सुचरितों को ग्रहण करना उसके लिए श्रेयस्कर है। ऐसा न हो कि वह उनके किसी ऐसे चरित्र या विचार को ग्रहण कर ले जो उसके विकास की धारा को ही अवरुद्ध कर दे।
स्त्री शिक्षा पर जोर देना स्वामी दयानन्द की शिक्षा विषयक मान्यताओं की एक अन्य विशिष्टता है। जीवनरूपी रथ के स्त्री और पुरुष दो ही पहिए हैं, इसलिए स्त्री को शिक्षा से वंचित रखना जीवन के सन्तुलित विकास में व्यवधान उपस्थित करना है। स्वामी दयानन्द के अनुसार कन्याओं के पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे विषयों का समावेश किया जाना चाहिए जो उन्हें आदर्श गृहीणि एवं आदर्श माता बनाने में उपयोगी सिद्ध हों। वे शिक्षा में किसी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध थे। गरीब और अमीर, राजा और प्रजा सभी के बालकों को शिक्षा में समान अवसर तथा विकास के समान साधन उपलब्ध कराये जाने का व्याख्यान करते है।
स्वामी जी ने कन्याओं के लिए ब्रह्मचर्य पालन का विधान किया-ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्। (अथर्व.-11/5/18, सत्यार्थप्रकाश) उन्हें यज्ञोपवीत ग्रहण करने का अधिकारी बताया (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास एवं संस्कार विधि) तथा कतिपय सूत्र ग्रन्थों के आधार पर सिद्ध किया कि यज्ञों में नारी वेदमन्त्रों का पाठ करे, ऐसे स्पष्ट निर्देश मिलते हैं। स्वामी जी ने गार्गी आदि के दृष्टान्त देकर पुरातन आर्य नारियों का शिक्षित होना ही नहीं अपितु ब्रह्मतत्त्व के विचार में निष्णात होना सिद्ध किया। ब्रह्मवादिनी तथा वेद मन्त्रों की द्रष्ट्री ऋषिकाओं के नाम प्राचीन साहित्य में सर्वत्र मिलते हैं। (अत्रि ऋषि की पुत्री अपाला, काक्षीवती घोषा, रोमशा, लोपामुद्रा, (अगस्त्य की पत्नी)|
सत्यार्थ प्रकाश में परिवर्तन लाने का जो दूसरा कार्य किया वह अद्वितीय है। वह है कथित दलित जातियों अर्थात् शूद्रों को सभ्य, सुसंस्कृत तथा सुशिक्षित बनाकर समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान दिलाना। स्वामी दयानन्द जी जन्म के आधार पर छुआछूत तथा ऊॅंच-नीच का भेद स्वीकार नहीं किया। वे सम्पूर्ण मानव जाति को वर्ण, वर्ग, लिंग तथा नस्ल के आधार पर बांटने के खिलाफ थे, यद्यपि गुण, कर्म तथा योग्यता के आधार पर वर्णव्यवस्था उन्हें स्वीकार्य थी। इसमें जन्मना ऊॅंच-नीच का कोई भेद उन्हें मान्य नहीं था। इसी दृष्टि से कथित शूद्र वर्ग समाप्त कर दिये गये धार्मिक एवं सामाजिक अधिकारों को उन्हें पुनः प्रदान करने के लिए सत्यार्थप्रकाश का अनुपम योगदान रहा।
शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखने वालों लोगों से स्वामी दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश में कुछ इस प्रकार पूछते हैं कि ‘क्या परमेश्वर शूद्रों का भला करना नहीं चाहता? क्या ईश्वर पक्षपाती है कि वेदों को पढ़ने सूनने का शूद्रों के लिये निषेध और द्विजों के लिए विध करे? जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढ़ाने सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक् और और श्रोत्र इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिये बनाये हैं वैसे ही वेद भी सब के लिये प्रकाशित किये हैं।’(सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास) इस प्रकार से शूद्र को पढ़ने का अधिकार दिलाने में सत्यार्थप्रकाश का अद्वितीय योगदान रहा है।
यहाँ पर वर्तमान में कथित शूद्रों की चर्चा की गई है, क्योंकि मध्यकाल से लेकर वर्तमान समय में शूद्रों को एक वर्ग विशेष के रूप में परिभाषित कर दिया गया है किन्तु यदि शास्त्रों का सम्यक्तया अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि शूद्र वह होता है जिसको अनेक विध युक्ति-प्रयुक्तियों से समझाने पर समझ में न आये। शूद्र को परिभाषित करते हुए स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में कहा है कि – ‘जिसको पढ़ने-पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह निर्बुद्धि और मूर्ख होने से शूद्र कहाता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमु.)
स्वामी दयानन्द जी मानते थे कि वे यदि वेद को हम परमात्मा की कल्याणी वाणी मानते हैं तो उसे पढ़ने का अधिकार मनुष्यमात्र को होना चाहिए। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी यजुर्वेद का एक मन्त्र ‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः’ (यजुर्वेद-26/2) प्रस्तुत किया और इसके अर्थ में लिखा है कि जिस प्रकार परमात्मा अपनी कल्याणी वाणी का प्रकाश ‘जनेभ्यः’ अर्थात् मनुष्यमात्र के लिए करता है, उसी प्रकार हम सबका भी यही कत्र्तव्य है कि हम इस ईश्वरीय ज्ञान को जन-जन तक पहुंचायें। स्वामी दयानन्द जी ने पौराणिक वर्ग की यह दलील खारिज कर दी कि वेदों को पढ़ने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है तथा वेदों का ज्ञान स्त्रियों और शूद्रों के लिए वर्जित है।
शिक्षा के क्षेत्र में अद्वितीय क्रान्ति सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही हुई है, इस प्रकार से स्त्री व शूद्रों के शिक्षा के सन्दर्भ में सत्यार्थप्रकाश का मत प्रस्तुत किया गया है।

शिवदेव आर्य

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