कविता

आशा

मंथनात्मक कविता

हम कहते ”आशा जीवन है,
है बढ़ने को प्रेरित करती,
आशा का संबल पाकर ही,
जीवन अमरबेल है बढ़ती”.

”आशा कभी न मरती” सुनकर,
सपने बहुत संजोए,
कुछ पूरे कुछ आधे रह गए,
कुछ सपने ही खोए.

आशा को तृष्णा कहते हैं,
तृष्णा कभी न पूरी होती,
तृष्णा तो पूरी भी हो ले,
आशा मृगतृष्णा ही होती.

फिर भी आशा पर जग चलता,
आशा बिना विकास नहीं,
दैहिक-दैविक-भौतिक उन्नयन,
संभव आशा बिना नहीं.

आशा को इतना न बढ़ाओ,
आशा मृगतृष्णा बन जाए,
आशा के झूले में झूलते,
जीना ही दूभर हो जाए.

तेते पांव पसारो जेती,
लंबी सौर तुम्हारी,
आशा को तृष्णा न बनाओ,
महके प्रेम की क्यारी.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “आशा

  • लीला तिवानी

    आशा जब तृष्णा और फिर मृगतृष्णा बन जाती है, तो जीवन जीना दूभर हो जाता है.

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