सामाजिक

लेख– विकास दर में वृद्धि कहीं कागज़ी तो नहीं हो चली?

देश तेज़ी से विकसित हो रहा। ऐसे में अगर आम अवाम की जिंदगी में बदलाव नहीं आता। तो इस बदलाव के क्या निहितार्थ? रहनुमाई व्यवस्था का यह दायित्व होना चाहिए, कि ऐसी नीतियां बनाई जाएं। जिससे समाज का समावेशी और सर्वांगीण विकास हो सके। पर दुर्भाग्य देखिए सियासी व्यवस्था का, कि उसकी तमाम नीतियों के क्रियान्वयन के बाद भी समाज में ऐसे तबक़े के लोग हैं। जिन्हें वे मूलभूत सुविधाएं नहीं मयस्सर हो रहीं। जो प्राप्त होना उनका अधिकार है। फ़िर ऐसे में बहुतेरे प्रश्न ख़ड़े होते हैं। सरकारी नीतियों और उसके क्रियान्वयन को लेकर। अब 2018-19 में देश की विकास दर ऊंची रहने का अनुमान किया गया है। जिससे सरकारी तंत्र फुले नहीं समा रहा है। अगर देखें, तो विश्व बैंक और दूसरी अन्य अंतराष्ट्रीय एजेंसियां अर्थव्यवस्था के मज़बूत रहने की आशा जताई है। विश्व बैंक अर्थव्यवस्था के 7.3 फ़ीसद रहने का अनुमान और डाईच बैंक ने 7.5 फ़ीसद रहने का ज़िक्र किया है। ऐसे में विकास दर में बढ़ोतरी राजनीतिक तौर से केंद्र सरकार को राहत की सांस देने वाली हो सकती है। पर क्या अर्थव्यवस्था के चमकने से देश की सकल सूरत और सीरत चमक रहीं हैं। शायद नहीं।

आज भी जिस हिसाब से देश की एक बड़ी आबादी को दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं होती। उसे देखकर रामधारी सिंह दिनकर की यह दो पंक्तियां एकदम अक्षरशः सटीक दिखती हैं। मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं, वसन कहां? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं। आख़िर इस स्थिति में परिवर्तन कब आएगा। आज हम नित्य नए विकास के आयाम लिख रहें, तो ऐसे में विकसित होने का क्या निहितार्थ कि कोई अरबपति हो जाए, और किसी को सुबह-शाम को रोटी भी न मिले। अगर साठ के दशक की एक कविता की दो पंक्ति आज भी आज़ादी के सत्तर वर्ष बाद प्रासंगिक है। इसका मतलब सरकारें आती हैं, वादा करती हैं और चली जाती हैं। भुखमरी और गरीबी नहीं मिटती। बड़े-बड़े विद्वान मुख्य कारणों की तलाश करते हैं और अपने-अपने विचार देते हैं। सरकारें तरह-तरह के वादे करती हैं। चुनाव लड़ती हैं, जीतती हैं और उसके बाद सब कुछ भूल जाती है। पांच वर्ष निकल जाते हैं और दूसरे चुनाव की तारीख आ जाती है। नेता झूठ बोलते हैं कि उनके काल में भूख पर लगाम लगी है। गरीबी मिटी है, लेकिन सच में कुछ नहीं हो पाता। गरीब और गरीब होता जाता है। अमीर और अमीर होता जाता है। सरकार फरेबी आंकड़े पेश करती है। यह स्थिति बदलना होगा।

प्रधानमंत्री ने अच्छे दिन का वादा 2014 चुनाव से पूर्व किया था। ताल ठोक ठोक कर कहा था- अच्छे दिन आएंगे। तो क्या आज की स्थिति देखकर यह कह सकते हैं, कि अच्छे दिन आ गए। उत्तर होगा बिल्कुल नही। महंगाई बढ़ रहीं। फ़िर अच्छे दिन कैसे आ सकते हैं। ऐसे में यह कितना क्रूर लगता है, कि जो सरकार सत्ता में ग़रीब-किसानों के नाम पर आती है। वहीं सरकार गरीबों की संख्या घटाने के लिये गरीबी की रेखा को नीचे करती जा रही है। पिछले दिनों नीति आयोग द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि 28 रुपये 65 पैसे कमाने वाले शहर में गरीब नहीं, और गांव में यह सीमा 22 रुपये 42 पैसे प्रतिदिन की गई है। ऐसे में जरा ईमानदारी से अपने गिरेबान में आज के अरबपति नेताओं को झांक कर देखने की ज़रूरत है, कि जो लोग शहरों में 859 रुपये 60 पैसे तथा गांव में 672 रुपये 80 पैसे मासिक खर्च करते हैं, वह गरीब कैसे नहीं। जब शक्कर का दाम 40 रुपए है और तेल लगभग 100 रुपए। फ़िर क्या उदाहरण और प्रस्तुत किया जाए।

ऐसे में अर्थव्यवस्था के बढ़ने की उम्मीद पर इतराने से आम आदमी की ज़िंदगी को क्या फ़ायदा। ऐसे में सवाल यहीं जब हम विकसित देशों से अपना आंकलन करते हैं। फ़िर ऐसी नीति क्यों आज़तक विकसित नहीं किया जा सका। जिससे समावेशी विकास का मूर्त रूप सामने आ सकें। अगर वर्तमान दौर में बढ़ती विकास दर के मायने समझे। तो सिर्फ़ इतना ही मामूल पड़ता है, कि बढ़ती विकास दर की परिभाषा केवल उद्योगपतियों, सरकारों और कारोबारियों तक ही सीमित रह गया है। आज हम विकसित देशों के समक्ष ख़ड़े होने की बात करतें हैं। तो पहले हम अपनी थाली में हुए छेद को भरने के लिए क़दम क्यों नहीं उठाते। देश में अधिकांश लोगों का धंधा कृषि है, जो चौपट है। कृषि को लेकर नई और वैज्ञानिक नीतियों का साफ़ अभाव दिखता है। महिला शिक्षा की दयनीय स्थिति है। भुखमरी के आगोश में देश की लगभग 19.40 करोड़ की जनसंख्या है। बाज़ार में तेज़ी के बावजूद बेरोजगारी चमक रही है। सडक़ पर प्रसूता बच्चे को जन्म देने को विवश हैं। बैंकिंग व्यवस्था चरमरा रही है। इसके अलावा अगर शिक्षा की हालात पतली है। ऐसे में सिर्फ़ अर्थव्यवस्था के बढ़ने मात्र से देश तरक़्क़ी की राह पर नहीं माना जा सकता। इसके लिए ज़रूरी है, कि गांवों को चमकाया जाएं। शिक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाए। विकास दर में वृद्धि मात्र से सरकारें ख़ुश न हो, बल्कि आम अवाम की जिंदगी में विकास की परछाईं झलकनी चाहिए।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896

One thought on “लेख– विकास दर में वृद्धि कहीं कागज़ी तो नहीं हो चली?

  • कुमार अरविन्द

    अच्छा है

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