कविता

जहाज उड़ गए

मेरे भी कई जहाज पानी में चलते थे।
चांद और सितारे मेरे आंगन में पलते थे।।

मिट्टी के खिलौने वो, कोहिनूर से कम न थे
खुशहाल थी वो दुनियां, कहीं भी गम न थे।
कागज के ही सही पर वो, सारे बीमान मेरे थे
हर जगह पर झूले थे और, खिलौने के डेरे थे।
उम्र की जालिम नजर, बस बर्वाद कर गई-
मां की उंगली थाम के क्या खूब चलते थे।।
मेरे भी कई………….. में पलते थे।

छुपने के लिये बस दामन ही बहुत था।
घूमने के लिये बस आंगन ही बहुत था।
हाथी भी मेरे थे कई, घोडे भी बहुत थे।
छप्पर मे मेरे पंक्षियांे के, जोडे भी बहुत थे।
नागों से आज की दुनियां ये डरती है यहां-
कोबरों को ले के हाथ में, हम रोज खेलते थे।
मेरे भी कई…………… में पलते थे।

चार किताबे देकर हमको फसा दिया।
दुनियां यही तुम्हारी है सबने बता दिया।
जागीर सारी लुट गई, रियासत चली गई
दुनियां सारी बर्वाद हुई, खुशियां चली गई।
बचपन के दिन खतम हुए जहाज उड़ गए
आंचल भी अब छूट गया, तन्हा निकलते थे
मेरे भी कई…………… में पलते थे।

वो कौन सी दुनियां थी जो बर्वाद हो गई
खुशियां सारी लेकर, मुसीबत आबाद हो गई
जिस सागर में जहाज मेंरे अब तक कई चले
नाखुदा कोई नही अब, खुद यहां डूबने चले।
इस दुनियां के (राज) बहुत हैं कोई समझ पाया नही।
इस दर तक आया हूं ऐेसे, गिरते थे संभलते थे।
मेरे भी कई……………… में पलते थे।
राज कुमार तिवारी (राज)

राज कुमार तिवारी 'राज'

हिंदी से स्नातक एवं शिक्षा शास्त्र से परास्नातक , कविता एवं लेख लिखने का शौख, लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र से लेकर कई पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त कर तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक दृष्टि सृष्टि में स्थान प्राप्त किया और अमर उजाला काव्य में भी सैकड़ों रचनाये पब्लिश की गयीं वर्तामन समय में जय विजय मासिक पत्रिका में सक्रियता के साथ साथ पंचायतीराज विभाग में कंप्यूटर आपरेटर के पदीय दायित्वों का निर्वहन किया जा रहा है निवास जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन २२५४१३ संपर्क सूत्र - 9984172782