हास्य व्यंग्य

आँख और जुब़ान क्यूं खोलें……

ट्रेन में टॉयलेट का पानी यूज कर चाय-कॉफी़ बनाने पर हो हल्ला हो रहा है। पानी तो पानी है ,कहीं का भी पानी उपयोग में लाया जा सकता है क्योंकि जल स्त्रोत खुद जल के लिए तरसने लगे हैं और फिर बचा खुचा पानी तो कहीं का भी हो सकता है!पानी उबलने के बाद केवल पानी रह जाता है चाहे साफ पानी हो चाहे गंदा पानी!उसमें अन्य रसायनिक या भौतिक तत्व या गुण या जिसे आप अवगुण मान रहे हैं,कहाँ रह जाते हैं।

मुझे विज्ञान का तो ज्यादा इल्म नहीं है फिर भी जहाँ तक समझ है उसके अनुसार जल पृथ्वी की सतह पर सर्वाधिक मात्रा में पाया जाने वाला अणु है।प्रकृति में यह तरल ,ठोस और गैसीय अवस्था में मौजूद है।कई पदार्थ जल में घूल जाते हैं, इस वजह से प्रकृति में मौजूद जल और प्रयोग में आने वाला जल शायद ही कभी शुद्ध होता होगा।हाँ,उसके कुछ गुण शुद्ध पदार्थ से थोड़ा भिन्न हो सकते हैं तब क्यूंकर हम इतनी हाय तौबा मचाते हैं!

वैसे यह बात सही है कि आँख देखे मक्खी नहीं निगली जाती लेकिन क्या कहीं भी ताक-झांक करना उचित है।सज्जन लोग किसी की रसोई में जब ताक-झांक नहीं करते तो फिर यह रेल्वे के कैंटीन में क्यूंकर झांकने गये।ताक-झांक करने वाले को कैसे पता कि टॉयलेट के पानी का यूज चाय-कॉफी के लिए ही हो रहा है!यह भी तो हो सकता है कि उससे खाना पकाया जा रहा हो!

क्या उन्हें नहीं मालुम कि सीवरेज के पानी को शरण देने वाले नाले सब्जियों के रिकार्ड तोड़ उत्पादन के लिए सर्व ज्ञात है।उसी पानी से उगाया जाता है और उसी से चमकाया।।यदि कहीं नाला नहीं है तो गटर के पानी से ही काम चला लिया जाता है।वैसे भी गटर नाले में,नाला नदी में,नदी सागर में मिलते हुए देखना कितना सुन्दर चित्र उपस्थित करता है और सागर का पानी वाष्पीकृत होकर बादलों का रूप लेकर वापस धरती का कर्ज उतारने आ जाए तब कहाँ तो टॉयलेट का पानी,कहाँ गटर का पानी और कहाँ नाले का पानी!अरे भाई,मानो तो देव नहीं तो पत्थर!ऐसा ही कुछ जल अर्थात् पानी के साथ है।मानो तो गंगा जी का पवित्र जल वरना प्रदूषित पानी। हमें छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ करने की आदत जो है!

देखा जाए तो पेट में जाकर पानी कौन सा साफ़ सूथरा रह पाता है।मानव शरीर क्या,पशु-पक्षी ,जानवर का भीतरी शरीर भी गंदगी से सरोबर है फिर शरीर के भीतर साफ़ पानी जाए या गंदा पानी, क्या फर्क पड़ना है।दूध वाला जब पानी की मिलावट करता है तो क्या हमें पता चलता है कि उसने वह पानी कहाँ से मिलाया! पानी का बर्फ और बर्फ का पानी बनते किसी ने देखा है।मुर्दाघर से निकलने वाली बर्फ की सिल्लाएँ जब मधुशालाओं पर पहुँच कर गन्ने के रस के साथ गले में तरावट पहुँचाती हैं और कलाली पर दारू में मिलाये जाने वाला पानी!मयखाने में मय के अलावा और कुछ कहाँ दिखाई देता है! जब यहाँ-वहाँ,तहाँ-कहाँ हम नहीं देखते कि पानी कैसा है और क्यों हो रहा है तो यह ट्रेन में पिलाई जाने वाली चाय-कॉफी में यूज किया गया पानी निगहबां होने का कारण भी समझ से परे है।जब हम बोतल बन्द पानी में यह नहीं देखते कि इसमें भरा जाने वाला पानी कहाँ से आया है,बर्फ फेक्ट्री में आने वाले पानी का स्त्रोत नहीं देखते हैं तब फिर रेल्वे की चाय-कॉफी में यूज होने वाले पानी के स्त्रोत पर हंगामा क्यों भाई!जब सभी जगह आँख और जुबान बन्द तो यहां भी सही,यही मानकर कि गंगा तेरा पानी अमृत या फिर यह सोचकर कि पानी रे पानी तेरा रंग कैसा,जिसमें मिलाये लगे उस जैसा!!

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009