गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल १

कहाँ कोई देखता है हाथ में कैसे निवाले हैं
लहू बहता है पानी सा मेंरे हाथों में छाले हैं ।

बिखर जाती है सब मेहनत तूफ़ान में फंसकर
राई राई जोड़ा है कि हर तिनका सम्हाले हैं।

बरस जाता है जब बादल तमन्नाओं पे मेरी
समन्दर पीर का अपनी पलकों से निकाले हैं ।

नहीं किस्मत बनाता है खुदा खलिहान वालों की
कभी भी वक्त न बदला कई सिक्के उछाले हैं ।

टूटके बिखरते हैं बिखरके खुद सम्हलते हैं
देखा फिर नया अंकुर फिर उम्मीदों के उजाले हैं।

तुम्हारा दर्द ए ‘जानिब’ मेरे सीने में रिसता है
जुड़े हम भी हैं मिट्टी से ये मिट्टी देखे भाले हैं ।

— पावनी जानिब, सीतापुर

*पावनी दीक्षित 'जानिब'

नाम = पिंकी दीक्षित (पावनी जानिब ) कार्य = लेखन जिला =सीतापुर