कहानी

आखिरी कहानी (भाग 3/5)

अध्याय 3 : विपुल

बाहर टहलते-टहलते उसे मालती की याद आई मगर वह उस गली में किसी कीमत पर नहीं जाना चाहता था। वह किसी अनजान तरफ मुड़ गया। उसने जेब में हाथ डाला तो पायल की जगह कुछ और मिला। उसने उसे बाहर निकालकर देखा तो वह एक पेन था, जो उसने बेखुदी में जाने कब जेब में डाल दिया।

खैर! पेन था तो खूबसूरत और था चोरी का। चोरी का पेन? हाँ चोरी का पेन, निरंजन को विपुल से हुई अपनी मुलाकात याद आ गई। उस छोटी सी मुलाकात ने विपुल के दिमाग़ में कौंधकर कुछ क्षण के लिए रोशनी कर दी।

उस दिन वह ट्रेन में था और अपनी चचेरी बहन की शादी में जा रहा था। निरंजन के चाचा शहर में ही कपड़ों की दुकान कर, तरक्की कर गए थे जबकि माँ-बाप गाँव के गाँव में ही रह गए थे। वे घर-बार छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहते थे और न जाने की सोच ही पाते थे। इसलिए शहर से हो रही इस शादी में शरीक होने के लिए निरंजन से ही कहा गया था।

सो, लो वह भी शादी का लुत्फ उठाने चल पड़ा। शादियों का सीज़न है सो किसी ट्रेन में जगह नहीं इसलिए जनरल डब्बे में ही घुसना पड़ा। इस डिब्बे में भी उम्मीद है कि अगले किसी बड़े स्टेशन पर खाली हो जाएगा और फिर निरंजन को पैर फैलाकर बैठने की जगह मिल जाएगी।

मगर हुआ बिल्कुल उल्टा। अगले बड़े स्टेशन पर और ठसाठस भीड़ की लहर आई और निरंजन को एक कोने में दबा दिया। जो निरंजन अब तक कॉरिडोर में हवा खा रहा था अब टॉयलेट के कोने में दुबका पड़ा था। उसके आगे भी कई लोग थे जो उसपर लगभग गिर से रहे थे। वह अपना संतुलन बना ही रहा था कि उसे महसूस हुआ कि उसके पीछे भी कोई दब रहा है। उसने पीछे कुछ जगह छोड़ते हुए आगे की ओर झुकना चाहा। मगर न चाहते हुए भी उसकी वजह से पीछे कोई चौदह-पंद्रह साल का लड़का दबा जा रहा था।

उसने महसूस किया कि उसके नीचे दबते हुए ही उस लड़के ने उसकी पिछली जेब में से बटुए को खिसकाना शुरू किया है और धीरे से उसे उसकी जेब से अलग भी कर दिया है। अब तो निरंजन चौकन्ना हो गया। उसे अच्छी तरह महसूस हो चुका था कि उसका बटुआ उस लड़के ने मार लिया है।

लोगों के चिढ़ने के बावजूद उसने भीड़ में अपने मुड़ने जितनी जगह बनाई और मुड़कर उस लड़के को घेर लिया। वह लड़का तो पहले ही उसके नीचे दब रहा था भला भागता कहाँ? सो उसने उसका कॉलर पकड़ लिया हालाँकि कि न तो लोगों का ध्यान गया और न किसी को समझ आ रहा था कि उस कोने में दोनों क्या कर रहे हैं।

निरंजन के होंठ हल्के हिले और भींचे हुए दाँतों के बीच से बस सवाल उठा “क्यों बे? बटुआ मार रहा है?”

उस लड़के ने रिरियाना शुरू कर दिया “नहीं-नहीं भैय्या। छोड़ दो प्लीज़। ऐसी गलती फिर नहीं करूँगा।”

लड़के के बोलने के तरीके से निरंजन अचंभित हो गया। अब निरंजन ने ज़रा ध्यान से उसे देखा। अच्छे-खासे ब्रांडेड कपड़े थे। बोल-चाल भी सभ्य परिवारों की लग रही थी। किसी तरीके से गरीब या बदमाश जैसा नहीं लग रहा था। फिर भला उसका बटुआ क्यों चुराया?

“अच्छा! फिर नहीं करेगा?”

“नहीं-नहीं। प्लीज़-प्लीज़ छोड़ दीजिए भैय्या।”

“फिर नहीं करेगा तो अभी क्यों किया?”

लड़का यहाँ-वहाँ देखने लगा। जैसे बताना नहीं चाहता हो।

“बताता है या कर दूँ भीड़ के हवाले।”

“नहीं भैया। प्लीज़ भैया। ऐसा मत करना। ये लोग मेरा भुर्ता बना देंगे। नहीं तो ट्रेन से नीचे ढकेल देंगे। ऐसा मत करना प्लीज़।”

“अच्छा ठीक है। फिर स्टेशन पहुँचकर पुलिस के हवाले कर देता हूँ।”

“नहीं भैया। प्लीज़। पाँव पकड़ता हूँ। ऐसी गलती फिर नहीं होगी।”

“अच्छा फिर बताता क्यों नहीं है कि बटुआ क्यों चुराया?”

“बताता हूँ। बताता हूँ। लेकिन प्रोमिस करो पुलिस को नहीं बताओगे।”

“वो मैं डिसाइड करूँगा। पहले तू बता।”

“नहीं भैया। फिर मैं नहीं बताऊँगा।“

“ठीक है फिर मैं अपने पीछे खड़ी इस भीड़ को बता देता हूँ। वो ही बताएंगे कि तुम्हारा क्या करना है।“

लड़का हाथ जोड़कर एकदम गिड़गिड़ाते हुए निरंजन के पैरों के पास बैठने लगा और उसकी आँखों में आँसू भर आए। निरंजन ने उसे कंधों से पकड़कर ऊपर खींचा। उसे लगा कि बच्चे की सच में कोई मजबूरी है। शायद गरीब ही हो जिसके घर में माँ-बहन-कोई बहुत बीमार हो। या ऐसी ही कोई दयनीय फिल्मी कहानी हो इस बेचारे की। निरंजन को अब सच में उस पर दया आने लगी।

निरंजन ने अपने बटुए से सौ का नोट निकालकर उसे देते हुए कहा –“ ले। रख ले। और अब बता कि बात क्या है?”

लड़का भी सहज होने लगा।

“थैंक्स भैया। लेकिन मुझे नहीं चाहिए। आप ही रखो।“

“क्यों? अभी तो पूरा बटुआ उड़ा रहा था। अभी भाव खा रहा है।“

“नहीं भैया। वो बात नहीं है। इतने में मेरा कुछ नहीं हो सकता।“

“क्या मतलब?”

निरंजन ने सोचा शायद वह किसी अंदरूनी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है और अपने इलाज के लिए ऐसी चोरियाँ करके पैसा इकठ्ठा कर रहा हो। शरीर से ही मरियल सा थका-थका लग रहा था। लाल आँखों के नीचे हल्के गड्ढे भी थे।

“क्योंकि ड्र्ग्स की एक पुड़िया कम से कम सात सौ की आती है। और इस वक्त मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है।”

“ड्र्ग्स? तू ड्र्ग्स लेता है।“

“हाँ भैया। क्या करूँ? बिना ड्र्ग्स लिए पूरे बदन में बेचैनी लगी रहती है।“

ट्रेन एक बड़े स्टेशन के प्लेटफार्म से जा लगी और काफी भीड़ वहाँ उतर गई। डिब्बा काफी खाली हो गया। निरंजन ने लड़के का हाथ पकड़कर खींच लिया और दोनों एक खाली पड़े साइड बर्थ पर जाकर बैठ गए।

“अरे रे! क्या उम्र है तेरी? कहाँ रहता है?”

“पंद्रह साल। बंग्लो रोड पर रहता हूँ।“

“बंग्लो रोड!!! वहाँ तो अच्छे-अच्छे लोगों का घर है।“

“हाँ मेरा भी घर वहीं है।“

“स्कूल जाता है? मम्मी-डैडी कहाँ हैं?”

“कभी-कभी स्कूल चला जाता हूँ। मगर कम अटेंडेंस की वजह से टीचर और प्रिंसिपल पैरेंट्स को बुलाने के लिए कहते हैं। इसलिए अब जाना बंद कर दिया है। फीस के नाम पे, कोचिंग के नाम पे, पिकनिक और स्पोर्ट्स और प्रोजेक्ट के नाम पे पापा-मम्मी से पैसे लेता हूँ। मगर अब वो भी कम पड़ रहे हैं। जग्गू ने रेट जो बढ़ा दिया है। इसलिए….“

“मम्मी-पापा को पता नहीं चलता तेरे?”

“नहीं। वो दोनों अपने क्लिनिक और हॉस्पिटल में बिजी रहते हैं और फिर जग्गू नकली मार्कशीट बना के दे देता है तो वे भी शक़ नहीं कर पाते।“

“वाह उस्ताद! इत्ती सी उम्र में इतना उड़ रहे हो।“

लड़का फीकी हँसी हँसा।

“भैया जी। बड़ी बुरी लत है। लगा के देखो, फिर आपसे पूछूँगा कि कितना ज़मीन पर हो और कितना आसमान में उड़ रहे हो। मुझे क्या अच्छा लगता है इस तरह चोरी करते हुए। मगर क्या करूँ? ये तलब, ये बेचैनी पागल कर देती है और बिना पैसे के कोई कुछ देने से रहा।“

लड़का खिड़की से बाहर देखने लगा और निरंजन उसे। उसने क्या-क्या सोचा और लड़का क्या निकला? इस समय उसे लड़के की इस तलब पर हैरानी हो रही थी।

“अब क्या करोगे? आज नशा कैसे करोगे?”

“भैया जी, आप बहुत अच्छे घर के लगते हो। आप ही कुछ उधार दे दो मुझे?”

“उधार? और लौटाओगे कब, कहाँ? पैसे लेकर चंपत हो गए तो मैं तुम्हें कहाँ ढूँढूँगा?”

लड़का हँस पड़ा।

“मैं तो मज़ाक कर रहा था। मुझे पता है आप नहीं दोगे। और कोई देगा भी क्यूँ? मगर मुझे ढूँढ़ ज़रूर सकते हो आप। अगर ढूँढना चाहो तो गाँधी बाग के पीछे वाली जो मिल है, जो अब खंडहर हो गई है और जहाँ अब कोई आता-जाता नहीं, वहीं नशे में धुत मिलूँगा..ह हा हा।“

निरंजन मुस्कुरा दिया।

“चल छोटे। तेरी बात मान भी ली, मगर मैं ठहरा एक मामूली लेखक। वो तो एक शादी में जा रहा हूँ तो बना-ठना लग रहा हूँ। नहीं तो मैं भी ठन-ठन गोपाल ही हूँ। तुझे कुछ दे नहीं सकता।“

“अच्छा! आप लेखक हो। मैंने एक कविता लिखी थी –‘रगों में बहता दर्द’। बस एक ही लिखी थी, बड़ी बेचैनी में लिखी थी। किसी को समझ नहीं आती। शायद आप समझो।“

“अभी है।“

“नहीं।“

अब दोनों खिड़की के बाहर देखने लगे।

इतने में लड़का चौंककर अपने बैग में कुछ ढूँढ़ने लगा। जैसे उसे कुछ याद आया हो। उसने खूबसूरत सा एक चमचमाता पेन निकालकर निरंजन की ओर बढ़ा दिया। पेन देखकर मालूम हो रहा था कि मामूली नहीं है।

“ये क्या?”

“भैया, आपके लिए। मेरे किसी काम का नहीं है।“

“तो फिर तुम्हारे पास क्या कर रहा है?“

लड़के ने सारे दाँत बाहर निकालते हुए कहा “एक बैग चुराया था। उसमें निकला।“

निरंजन ने पेन हाथ में लेकर उसकी खूबसूरती निहारते हुए कहा –“मुझे चोरी का पेन दे रहे हो?”

लड़का हँसते हुए बोला “और दे भी क्या सकता हूँ?”

इतने में एक और लड़का वहाँ आ पहुँचा और उसने निरंजन के सामने बैठे लड़के के कंधे पर हाथ रखकर कहा –“चल, अब निकलें।“

“मगर मेरे हाथ कुछ नहीं लगा।“

“कोई नहीं। मैंने अच्छा हाथ मारा है। आज का तो हो ही जाएगा।“

“अच्छा चल।“

लड़का उस दूसरे लड़के के साथ जाने लगा कि निरंजन ने पीछे से पुकारकर कहा –“अपना नाम तो बताते जाओ।“

लड़का चलते-चलते ही गर्दन पीछे मोड़कर बोला “विपुल“ और हँसकर गायब हो गया। निरंजन उस ओर ही देखता रह गया जिस ओर वह मुड़कर दूसरी बोगी में गायब हो गया था।

विपुल से हुई उस दिन की मुलाकात में कुछ मिनट डूबे निरंजन को एक ज़ोरदार तलब हुई कि वह गाँधी बाग के पीछे वाले मिल पर जाए और एक पुड़िया ले ही आए। मगर वह तलब जितनी ज़ोर से उठी थी उतनी ही ज़ोर से वापस बैठ गई। क्यों? दो कारणों से। एक तो बड़ी मुश्किल से छूटी इस नशाखोरी की लत को वह वापस अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहता था। कहानियाँ लिखने तक तो ठीक था। जिस तरह से नशे ने उसे खोखला किया, एक समय तो लगा कि उसे कहानियाँ लिखना भारी पड़ गया था।

दूसरे विपुल के उस ठंडे हाथ का अहसास जो उसे भीतर तक कँपा गया।

गाँधी बाग के पीछे वाले मिल पर तो जाने का विचार निरंजन ने त्याग दिया। मगर कुछ तो दिमाग में, उँगलियों में और होंठों पर खलबली मची थी जिसे शांत करना बहुत ज़रूरी लगा। उसे नुक्कड़ वाली वह पनवाड़ी की दुकान दिखी जिसके खुले होने का अंदेशा हो सकता था।

वहाँ पहुँचकर उसने एक-दो युवकों को सिगरेट पीते देखा। एक ने मुँह से आसमान की ओर धुँआ ऐसे छोड़ा जैसे उसे अभी-अभी नैसर्गिक आनंद की प्राप्ति हुई हो। दृश्य देख निरंजन मुस्कुराए बिना नहीं रह सका। उसने मन ही मन सोचा कि अगर सिगरेट में ही इसे ऐसे नशे की स्वर्गानुभूति हो रही है तो इसे मेरी तरह हीरोइन चखा दिया जाए तो क्या करेगा।

उसने जेब में हाथ डाला तो ठंडा पेन हाथों में आ गया और विपुल का चेहरा आँखों के आगे घूम गया। उसकी उँगलियों को विपुल के ठंडे शरीर के छुअन की याद आई तो किसी भी नशे को करने की तलब खत्म हो गई। उसने मुठ्ठियाँ बाँध ली और दोनों मुठ्ठियाँ जेबों में डालकर सड़कों पर आवारा घूमने लगा। उसे अपनी आखिरी कहानी की तलाश थी।

वह कहाँ चला जा रहा था, उसे ध्यान नहीं मगर दिमाग में वे सारी कहानियाँ घूम रही थीं जो इस संकलन के लिए उसने विपुल से मिलने के बाद लिखी थीं। उसे यह भी याद आने लगा कि कैसे वह विपुल से ट्रेन में मिलने के बाद उस खंडहर में भी पहुँच गया था।

उस दिन वह सौरभ से मिलकर लौट रहा था। बड़े दिनों बाद दोनों दोस्त मिले थे और मिलकर गप्पे लड़ाईं थीं। अपने फेवरेट हॉटेल में खाना भी खाया, जहाँ वे अपने कॉलेज के दिनों में खाया करते थे। मगर जाते-जाते सौरभ ने मालती की बात छेड़ दी। वैसे तो निरंजन बहुत सहज होने का दिखावा करता और अब भी कर रहा था मगर उसके भीतर ही भीतर कुछ सुलग रहा था, कुछ जल रहा था। जिसका पता वह सौरभ को न लगने देता। सौरभ भी क्या कहेगा कि पसलिया तुड़वाकर भी ये उसको भूला नहीं?

खैर, उससे विदा लेकर टैक्सी पकड़ी तो टैक्सीवाले के अलग नखरे। बोला – उधर नहीं जाऊँगा। निरंजन ने जिस टैक्सी से पूछा उसने उसके घर की ओर जाने से मना कर दिया। हारकर उसने झुँझलाहट में एक को पूछा – इधर नहीं जाओगे, उधर नहीं जाओगे। आखिर जाओगे किधर? जवाब मिला गाँधी बाग तक छोड़ देंगे वहाँ से दूसरी टैक्सी कर लीजिएगा।

मरता क्या न करता? गाँधी बाग पहुँचने तक मालती दिमाग़ में घूमती रही। सौरभ को भी क्या पड़ी थी मालती का नाम लेने की। उन्हीं ख्यालों में डूबा, जाने कब वह दूसरी टैक्सी की तलाश में बाग के उस मुहाने पर पहुँच गया जहाँ से झाड़ियों के बीच से एक पतला रास्ता उस खण्डहर तक जाता था।

कुछ पल के लिए मालती की जगह विपुल दिमाग़ में घूम गया। निरंजन को जाने क्या उत्सुकता हुई। उसने सोचा जब यहाँ तक आ ही गए हैं तो क्यों न कुछ कदम आगे बढ़कर उस छोकरे का हाल-चाल ले लें। यह भी पता चल जाएगा कि उसकी बात में कितनी सच्चाई थी।

निरंजन ने उस ओर कदम बढ़ा दिए।

पत्थरों का बना पुराना किला सा था जिसकी एक बहुत बड़ी ड्योढ़ी पर दो लड़के बैठे थे। ड्योढ़ी इतनी बड़ी थी कि चार लोग एक ओर की दीवार से पीठ टिकाकर आराम से बैठ सकते थे। ज़रूर किले का मुख्य द्वार रहा होगा। बड़े काठ के दरवाज़े भी रहे होंगे।

मगर अभी तो दो स्कूली लड़के बैठे थे। स्कूली? हाँ, दोनों ने सफेद शर्ट और गाढ़े नीले रंग की पैंट पहनी थी। निरंजन को दूर से देख दोनों की हवाइयाँ उड़ने लगीं। दोनों अपनी-अपनी जगह खड़े होकर ध्यान से देखने लगे।

ड्योढ़ी के आगे दूर तक पत्थरों के ढेर थे। इन्हीं पत्थरों पर चढ़-उतरकर ड्योढ़ी तक जाया जा सकता था। निरंजन ने इन पत्थरों को पार करना शुरू कर दिया था। विपुल हिम्मतकर आगे आया और बढ़कर देखने लगा कि कौन इस भूले-भटके खंडहर की तरफ निकल आया।

कुछ करीब पहुँचकर निरंजन ने विपुल को पहचान लिया। हाँ विपुल ने कुछ समय लगाया।

“अरे भैय्या! आप! आप इधर कहाँ भटक गए?”

“कुछ नहीं, बस यहीं से गुज़र रहा था तो सोचा देखता चलूँ कि तुम्हें तुम्हारी कोकीन मिली की नहीं।“

विपुल ठहाका लगाकर हँस दिया। और ड्योढ़ी की ओर बढ़ते हुए अपनी बात पूरी की।

“कोकीन, कोकीन तो अमीरों के चोंचले हैं। हमें तो हीरोइन मिल जाए वही बहुत है। या कभी-कभी कोकीन नहीं तो क्रैक ही सही।“

“तूने तो पूरी रिसर्च कर ली।“

विपुल केवल हँस दिया।

दोनों ड्योढ़ी पर पहुँचे।

“लेकिन दो डॉक्टरों का बेटा अमीर नहीं होगा क्या?”

“डॉक्टरों का बेटा हूँ, पॉलिटीशियन का नहीं….।“

उसने फिर हँसते हुए अपनी बात पूरी की “…और वैसे भी डॉक्टर वे हैं। मैं थोड़े न हूँ।“

विपुल ने अपने साथी को निरंजन से मिलवाया। दोनों ग्यारहवीं के छात्र थे। कुछ मामूली बातचीत के बाद। वे तीनों वहीं ड्योढ़ी पर बैठ गए।

“क्या बात है आज तुम्हारी आवाज़ में बहुत खनक है? बहुत खुश लग रहे हो।”

हथेली पर रखी एक छोटी सी पुड़िया दिखाते हुए विपुल ने कहा।

“हाँ बड़ी मुश्किल से हमें यह पुड़िया मिली है। इसे सूँघने ही जा रहे थे कि आप दिख गए….“

निरंजन ने उत्सुकता जताते हुए पूछ ही लिया।

“ये पुड़िया! इसे सूँघते हो? कैसे सूँघते हो?”

“अभी दिखाते हैं।“

विपुल ने अपनी जेब से एक लाइटर निकाला और उसके साथी ने टिन का पत्ता निकाला और उस पर पुड़िया का सफेद पाउडर रख दिया। फिर उसके नीचे लाइटर जलाकर दोनों सूँघने लगे।

जैसे औपचारिकतावश कोई कुछ खाने से पहले सामने वाले से खाने के लिए पूछता है, विपुल ने भी निरंजन से पूछ लिया। निरंजन ने एक झटके में मनाकर दिया और उनकी इस रहस्यमयी गतिविधि को यूँ उत्सुकता से घूरने के लिए शर्मिंदा भी हुआ। इसलिए उसने इधर-उधर देखना शुरू किया और नज़रों से खण्डहर का मुआयना किया।

कितनी एकांत जगह है? क्या एकाकीपन है इस जगह में। क्या कभी मालती को ऐसी जगह ले जाया जा सकता है। कैसी बेवकूफी भरी बातें हैं? भला उससे क्या वास्ता? मगर अगर नहीं है तो वो याद क्यों आती है? क्या यह ड्रग्स उसे भुला सकता है? ड्र्ग्स तो नशा होता है। मगर नशा तो सिगरेट और शराब भी है। उससे तो वह दूर नहीं रहा। फिर असली नशा तो इसी को कहते हैं लोग। इतना साधु भी तो नहीं है वह कि जीवन में कुछ गलत किया ही न हो।

उस पल निरंजन का मन इस नए रोमांच को करने का हो ही चला। उसने विपुल को देखा।

“कैसा महसूस होता है?”

विपुल समझ गया निरंजन के भाव।

“क्यों चखना है भैया? चखोगे तो जानोगे कि क्या महसूस होता है। महसूस तो ऐसा होता है कि हवा में तैर रहे हैं। दुनिया और दुनिया की बातें सब बेकार महसूस होती हैं। छोटी-छोटी चीज़ें बड़ी हो जाती हैं जैसे दीवार पर बनी ये लकीरें। लेकिन आप सँभाल नहीं पाओगे भैया। हमारे लिए तो ये आम चीज़ हो गई है। सच कहो तो अब इसमें भी मज़ा नहीं आता। हाँ थोड़ी बेचैनी कम ज़रूर होती है। मगर अब सूँघने भर से काम नहीं चलेगा। अब तो बस्स, कोई सीधे नसों में घुसा दे, बस। तभी चैन आए। पापा के हॉस्पिटल से सिरिंज चुराना है। तो काम हो जाएगा।“

निरंजन सोच में पड़ गया। क्या सचमुच उसे यह ट्राई करना चाहिए? कुछ देर वह ऐसे ही दुविधा में रहा जैसे शादी करने जा रहा हो। मगर जैसे सब-कुछ सोच जाने के बावजूद लोग शादी कर ही लेते हैं। उसने भी हिरोइन ट्राई कर ही ली। विपुल भी एक और ही पागल था। उसने बिना समझे-बूझे भारी खुराक चढ़ा दी निरंजन को।

फिर? फिर क्या था? एक पल को तो निरंजन की दुनिया ही घूम गई। वह स्थिर हुआ तो पत्थरों पर पड़ती सूरज की आखिरी डूबती किरण बड़े-बड़े शोलों की पंक्तियों में तब्दील हो गई। वह उठा और उठकर बड़े-बड़े शोलों को छूने चल दिया और चलता चला गया। जब तक विपुल और उसका साथी नशाखोरी में व्यस्त थे वह सड़क पर आ गया।

इस समय निरंजन को दुनिया खूब धुली-धुली और साफ़ नज़र आ रही थी। रंग खिलकर बिखरे हुए थे। हर जगह रंग अपने पूरे निखार पर थे और आँखों को अपनी तरफ खींच-खींचकर अपना अस्तित्व बयाँ कर रहे थे। निरंजन को लग रहा था जैसे रंग उससे कह रहे हों –‘इधर देख मैं लाल हूँ, कत्थई लाल’ ‘और मैं चम्पई हूँ चम्पई’ ‘यहाँ देखो मैं वसंती हूँ’ ‘और मैं खिला हुआ नारंगी’ ‘मैं बैंगनी हूँ, मुझे देखो निरंजन’ ‘नहीं मेरी धानी छटा देख निरंजन’।

निरंजन रंगों में खोया हुआ लंबे-चौड़े फुटपाथ पर पहुँच गया, जहाँ एक समाचार बेचने का पतला सा स्टैंड लगा हुआ था। उस स्टैंड पर तरह-तरह की पत्र-पत्रिकाएँ रखी थीं। उनपर नज़र पड़ी तो निरंजन ने देखा कि सिने जगत से जुड़ी सभी पत्रिकाएं सुनहरी चमकने लगीं और महिलाओं से संबंधित पत्रिकाएँ हल्की गुलाबी। अर्थव्यवस्था से जुड़े समाचार पत्र तथा पत्रिकाएं हरी चमकने लगीं और सामयिक विषयों की किताबें गाढ़ी नीली। साइंस जूर्नल पीली और लाइफस्टाइल से जुड़ी नारंगी। बच्चों की किताबें बैंगनी तो प्रतिस्पर्धा से जुड़ी लाल, खूनी लाल, इतनी लाल कि निरंजन को लगा कि उसकी आँखों में एक कोने से दूसरे कोने में चमकदार खूनी लाल रंग फैलने लगा है।

उसने झटके से नज़र फेर ली। सामने कपड़ों का एक बड़ा शोरूम मौजूद था। एक पुतली आसमानी नीले रंग का सेटिन का गाऊन पहने थी जिसमें फ्रिल बने हुए थे। फ्रिल इतनी सफाई और सटीकता से लगे थे कि निरंजन उन फ्रिल्स पर मुग्ध हो गया। एक के नीचे एक फ्रिल पर जब रोशनी गिरती तो निरंजन को वे गिरती हुई रोशनी किसी झरने की तरह लगी जो उसे ठंडक पहुँचा रही थी। ऐसी ठंडक जो किसी जंगल के झरने के पास मिलती है।

निरंजन का दिल किया कि वो एकदम से उन फ्रिल्स में बदल जाए और फिसलने लगे या पिघलने लगे। उसकी इच्छा का दबाव उसके अपने ऊपर इतना अधिक था कि वह उस काँच की दीवार से चिपक गया जिसके उस पार वो पुतली खड़ी थी। उस शोरूम के दरवाज़े पर खड़ा दरबान काफी देर से उसकी हरकतें देख रहा था। उसके दीवार से चिपकते ही दरबान को यकीन हो गया कि यह कोई पागल है और वह उसे भगाने के लिए दौड़ पड़ा। उसने निरंजन के कंधे पर अपने डंडे से खोदा।

निरंजन चौंक के पलटा तो दरबान उसे भगा रहा था। निरंजन का सपाट चेहरा देख दरबान ने उसे फुटपाथ की ओर धकेल दिया और भाग जाने को कहा। निरंजन पलट गया और अभी दो कदम फुटपाथ के किनारे तक बढ़ाए थे कि उसे अचानक महसूस हुआ कि उसके अंदर खूब सारा पानी भर गया है और अगर उसने अभी इसी समय अपने शरीर से कुछ पानी बाहर नहीं किया तो वह फट जाएगा और सारा पानी दुनिया में फैल जाएगा।

उसने फुटपाथ के बगल में देखा तो एक पतली नाली की धार सी बह रही थी। उसने अपने शरीर से पानी निकालने का मन बना लिया और एक धार सी छोड़ दी। धार से निकली बूँदें पीले मोती की तरह नाली में जा मिल रही थीं। निरंजन इसी दृश्य की खूबसूरती में खोया हुआ था कि उस दरबान ने उसे देखा।

निरंजन की यह हरकत, वह भी खुलेआम उस शोरूम के ही आगे देखकर दरबान बौखला गया। इस पागल को यही जगह मिली थी। वह चीखता और गरियाता हुआ निरंजन की ओर दौड़ा। मगर निरंजन तो पुखराज सी पीली मोतियों के झरने में खोया हुआ था। निरंजन की उसके प्रति उपेक्षा उसे और खीझा रही थी। उसने अपने पूरे ज़ोर से अपना डंडा निरंजन के सिर पर दे मारा। जाने नशे के प्रभाव से या सिर पर चोट के प्रभाव से निरंजन फुटपाथ पर गिर पड़ा।

निरंजन फिर अस्पताल में था। पसलियों में दर्द फिर उठ आया था मगर साथ में सिर की चोट का एक नया दर्द भी शामिल था। सौरभ उससे पूछ रहा था कि क्या हुआ था उसे। मगर निरंजन सौरभ को अपनी एक और कमज़ोरी से वाक़िफ नहीं कराना चाहता था।

दरअस्ल जब निरंजन फुटपाथ पर बेहोश पड़ा था तो विपुल और उसका दोस्त उसे खोजते हुए वहाँ पहुँच गए थे। वे खुद किसी प्रकार की मदद करने में असमर्थ थे मगर निरंजन की जेब से फोन निकालकर एमर्जेंसी नंबर ज़रूर लगा दिया। एमर्जेंसी नंबर था सौरभ का।

निरंजन ने बेड पर पड़े-पड़े ही प्रतिज्ञा की कि वह नशा नहीं करेगा। कभी नहीं करेगा। मगर नशा कोई मालती तो थी नहीं जिसने बेआबरू कर कूचे से निकाल दिया हो। अगर हिरोइन ने भी उसे अपने मामा से पिटवाकर कहीं फेंकवा दिया होता तो शायद वह उस तरफ जाने की कभी नहीं सोचता।

मगर हीरोइन ने तो ऐसा कोई पाप नहीं किया जिसकी सज़ा निरंजन मुकर्रर कर पाता। इसलिए वह फिर उस खंडहर में जा पहुँचा। विपुल ने भी उसको डोज़ देने में सावधानी बरती। वैसा हादसा दुबारा नहीं हुआ। नशा उतरने तक निरंजन खंडहर छोड़कर कहीं नहीं जाता। लेकिन नशा भी नहीं छोड़ता। कैसे छोड़ता? इस नशे ने ही तो उसे मालती को भूलने में मदद की है। सचमुच उसे मालती तो क्या दुनिया की भी कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती।

विपुल और उसके दोस्तों से वह अच्छा घुल-मिल गया था। विपुल तो जैसे छोटे भाई जैसा हो गया था। कभी-कभी उसे दुख भी होता था कि वह विपुल को इस दलदल से निकालने की बजाय खुद भी उसके साथ उसी दलदल में धँसता चला जा रहा है। आखिर विपुल की उम्र ही क्या है। निरंजन का खुद का तो कोई भविष्य नहीं है। उसे कुछ हो भी जाए तो क्या? मगर विपुल के सामने तो अभी पूरी जिंदगी है। अभी तो उसने दुनिया देखी ही कहाँ है? देखा है तो बस ये नशे का नरक।

निरंजन सब-कुछ जानता था और समझता था। भले ही विपुल नहीं समझता था। मगर उन छोटी-छोटी पुड़ियाओं के आगे वह भी उतना ही मजबूर था जितना विपुल खुद।

फिर एक दिन।

निरंजन अपनी कलम से खेल रहा था और ‘तलछट की मछलियाँ’ के आगे कुछ न लिख पाने के लिए खीझ रहा था कि विपुल के एक दोस्त का फोन आया।

“भैय्या जी जल्दी से ऐलेक्सेस हॉस्पिटल आ जाइए।“

निरंजन को याद आया कि यह तो विपुल के पिताजी के अस्पताल का नाम है।

“क्यूँ? क्या हुआ?”

“विपुल की हालत खराब है।“

“ओह”

निरंजन अपने पहले तल्ले के मकान से सीढ़ियाँ लगभग कूदता-फाँदता गली में जा पहुँचा और एक ऑटोवाले से मिन्नतें कर अस्पताल पहुँचा।

विपुल का शरीर स्ट्रेचर पर रखा था। उसका नीला पड़ा हाथ जगह-जगह से सुई चुभोने से घायल था। अब विपुल को फुल शर्ट पहनकर उसे छुपाने की ज़रूरत नहीं थी। उसके माता-पिता सब जान चुके थे। निरंजन ने एक क्षण को उसका हाथ पकड़कर रोना चाहा। मगर ज़हरीली नसों से भरे उस हाथ को छूते ही निरंजन ने महसूस किया की विपुल के शरीर की ठंडक उसके हाथ से होकर निरंजन के भीतर समा गई है। वह ठंड से काँप उठा।

वह साइड में लगी कुर्सियों पर बैठ गया। कोई होश में नहीं था जो देखता कि निरंजन कौन है। विपुल के गम में डूबे उसके माँ-बाप तो पहले ही आधे पागल से हुए पड़े थे। ऐसे में निरंजन कौन है और कहाँ से आया है, कौन जाने? वह तो बस वहीं कुर्सी पर जम के बैठ गया। विपुल के चले जाने का जैसे दिल को गहरा धक्का लगा हो, निरंजन का दिल कई मन का हो गया।

मगर इस अशुभ घड़ी में भी निरंजन को एक पल के लिए नशे की तलब उठी। उसने अपने ऊपर खीझ और घृणा से कुर्सी को कसके पकड़ लिया। लोहे की ठंडी कुर्सी ने फिर निरंजन को ठंड से भर दिया और वह फिर विपुल के ठंडे शरीर के अहसास से काँप उठा।

उस दिन के बाद से हर ठंडी चीज़ निरंजन को विपुल के उस मृत शरीर की ठंडक का एहसास दिला जाती जिस शरीर में हिरोइन के ज़्यादा डोस ने ज़हर का काम किया था। निरंजन को जब तलब उठती तो कोई ठंडी चीज़ थाम लेता और विपुल को याद कर लेता। कभी-कभी तो उसे याद कर रो भी पड़ता। उसने विपुल को क्यों नहीं रोका।

कभी-कभी तो उसे बर्फ के टुकड़े हाथों में भींचने पड़ते। उन्हें हाथ की नसों पर रगड़ता। मगर जो भी करता उससे उसका नशा धीरे-धीरे काबू में आ गया। मरने का डर क्या इतना खतरनाक होता है? निरंजन सोचा करता।

विपुल की याद में उसने अपने संकलन की अगली कुछ कहानियाँ लिखी थीं जिन्हें नाम दिया ‘रगों में बहता दर्द’। इसमें उसने विपुल की लिखी कविता भी डाल दी। विपुल तो रहा नहीं, कम से कम उसकी कविता तो रहे।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com