लघुकथा

घमण्ड

काली और सुनहरी कलम अपने डिब्बे से बाहर आ चुकी थी। पास की दवात की शीशी रही हुई थी। कलम ने शीशी को देखा और इठला कर बोली,”देखो मैं कितनी सुन्दर हूँ, मेरा आकार,मेरा रंग-रूप… और तुम… तुम्हारा न तो कोई ढंग का आकार है और न ही तुम मेरी जैसी खूबसूरत ही हो!”
दवात ने मानो अनसुनी कर दिया था। वह कुछ न बोली।
पर कलम कहाँ रुकने वाली थी, उसने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा,”अरी ओ दवात तुम कुछ कहती क्यों नहीं? मैं तुमसे ही बात कर रही हूँ।”
दवात ने उस काली सुनहरी कलम को टेबल की दराज़ के अंदर रखी हुई अनेक कलम की तरफ़ इशारा किया। “एक से एक खूबसूरत कलम है वहाँ देखो”, दवात ने कहा।
“हाँ तो! पर मेरे जैसी नहीं हैं ,तभी तो मुझे पसन्द कर खरीदा गया है।”गुरुर से कलम ने कहा।
“अरी मूर्ख! अब तुझे कैसे समझाऊँ ….अच्छा सुन ये जो कलम रखी हुई हैं वे भी तो कभी नई रही होंगी न….!”दवात ने उसको समझाते हुए कहा।
“हाँ तो!”
“तो आज ये पुरानी हो गयी हैं,सब की सब बेकार, यह भी तुम्हारी ही तरह इतराती रहीं और मुझपर हँसती रहीं , हाँ सच कहती हो तुम मेरा कोई आकार नहीं और न ही मैं खूबसूरत ही हूँ तुम सब की तरह। पर मैं तो आज भी वैसी ही हूँ जैसी कल थी और आगे भविष्य में भी शायद ऐसी ही रहूंगी पर तुम……!”
दराज में पड़ी कलम बाहर आने के लिए तड़पती दिखाई दे रही थीं। और नई कलम अपना भविष्य देख रही थी।
दवात अब भी स्थिर बैठी थी।

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट श्री द्वारकाधीश मन्दिर चौक बाज़ार भोपाल 462001 मो न. 9424473377