संस्मरण

संस्मरण : आखिर नाम याद आया

पति को ब्रेनहेमरेज के साथ पैरालाइज होने के पन्द्रह-सोलह दिन बाद उनके दिमाग की सर्जरी हुई थी। इस ऑपेरशन के बाद धीरे धीरे उनकी आवाज लौटने लगी थी। टूटे-फूटे शब्दों में वे थोड़ा बहुत बोलने लगे थे लेकिन ना जाने ऐसा क्यों होता था कि वे बोलना कुछ चाहते थे और उनके मुँह से शब्द कुछ और ही निकलते थे। अपने मुँह से निकले गलत शब्दों को वे तुरन्त पहचान भी जाते थे।
उन शब्दों को ठीक करने की कोशिश में उनकी आवाज अटक जाती थी। वे भरसक कोशिश करते कि वे सही शब्द बोलें लेकिन अधिकतर वे बार बार अपनी कोशिश में फेल हो जाते या फिर सामने वाले का संयम ही टूट जाता उन्हें बोल दिया जाता कि हम समझ गये, आप अपने दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं दो।
अधिकतर लोग तो यही कहने लगे थे कि उनका दिमाग चल गया है। मुझे इस बात से बहुत गुस्सा आता था। वह समय हम माँ-बेटियों के लिए जितना कष्टकर था वह मैं तो शब्दों में बयान कर भी दूँगी लेकिन मेरे कुछ नजदीकी लोगो को आज भी हजम नहीं होगा। हमारी उस मजबूरी का फायदा उठाने वाले भी कम लोग नहीं थे।
बार बार हम टूटते और खुद ही खुद का सहारा बनकर खड़े हो जाते। इस टूटने-जुड़ने की प्रकिया में हमें बस कुछ ही पलों का समय लगता। जाने कहाँ से इतनी शक्ति हमें मिल रही थी। जिस दरख़्त के सहारे हम खड़े थे वह तो खुद ही पैरालाइज्ड हो गया था लेकिन उनसे ज्यादा कुछ नजदीकी लोग दिमाग से पेरालज्ड जो गए थे।
मैं उनकी छाया की तरह हर पल उनके साथ ही थी। फिर भी मेरी शिकायतें गाँव मे पहुँचती, वहाँ से फोन पर ही मुझे सुनाया जाता, डांटा जाता , मेरी परवरिश (मेरे परिवार ने मुझे जो संस्कार दिए) पर उंगलियाँ उठने लगी और मेरे दिए संस्कारो पर भी।
जब जब मैं टूटती कुछ आँसू मेरे गालों पर लुढ़क जाते पति से तो जैसे कैसे छुपा भी लेती लेकिन बेटियों से ना छुपा पाती थी। दुखते दिल से बेटियों के मुँह से बस यही निकलता कि भगवान ने हमारे पापा तो ऐसे कर दिए अब ये लोग क्या चाहते हैं कि हम बिन माँ के भी हो जाएँ? बच्चे टूटे नहीं इसलिए मैं तुरन्त उठकर अपने आँसू पोछती और बोलती तुम चिंता ना करो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
रोज शाम फियोथेरेपिस्ट आते थे वे पति की कुछ एक्सरसाइज करवाते उनकी हर प्रक्रिया मुझे ध्यान से देखनी होती थी। जो जो वे शाम को करवाते वही दुसरे दिन सुबह मुझे पति को करवानी होती थी। इसी के साथ वे उनसे बाते भी करते रहते थे। उन्हीं ने हमें बताया था कि इनके दिमाग में कोई कमी नहीं है, इस बीमारी में ऐसा अक्सर हो जाता है।
डॉक्टर उनसे बेटियों का नाम पूछते तो वे बड़ी बेटी का नाम अपनी बड़ी बहन का नाम बताते इसी तरह छोटी बेटी को छोटी बहन के नाम से बुलाते।
एक दिन डॉक्टर ने उनसे मेरी तरफ इशारा करके पूछा कि — ये कौन हैं? उनके मुँह से निकला –माँ। विनोद जी अपने बोले शब्दो को सुधारने की कोशिश करने लगे– नहीं, नहीं, माँ… ओ माँ, नहींन माँ नहीं, मैं कह रहा था, माँ, माँ नहीं, ओह… डॉक्टर ने मेरा चेहरा देखा हम दोनों के मन की बात समझी। उनकी तरफ देखकर कहा कोई बात नहीं मैं समझ गया। फिर मुझसे बोले कितने समय से मैं भी देख रहा हूँ , आप इन दिनों इनकी माँ ही तो बनी हुई हो। पत्नी भी माँ की तरह ही केयरिंग होती है। मैंने अपने हाथ की पाँचों उंगलियाँ उठाकर पति की तरफ देखकर तसल्ली वाला भाव दिया और किसी काम के बहाने से रसोई में जाकर खुद को संभाला।
डॉक्टर रोज आते रहे, रोज ही उनकी थेरेपी होती रही। उस दिन फिर डॉक्टर ने उनसे बेटियों के नाम पूछे उन्होंने फिर अपनी बहनों के ही नाम बोले लेकिन उस दिन डॉक्टर ने जब उनसे पूछा और ये कौन है तो पति ने जबाब दिया–नीता। यह पहला नाम था जो उन्होंने पैरालाइज्ड के बाद सही पुकारा था।
दोनो बेटियों और डॉक्टर के मुँह से खुशी से निकला ओह हो ! इनका तो नाम याद है आपको। डॉक्टर बहुत खुश थे और बेटियों की खुशी में एक शिकायत भी शामिल थी। डॉक्टर की तरफ देखते हुए इन्होंने कहा कि क्यों याद नहीं रहेगा? आखिर मेरी वाइफ है। इतना सुनते ही सब ठठाकर हँस पड़े।
इस हँसी में भी मेरी आँखों में आँसू आ गये थे मेरे मन में आज उतनी ही खुशी थी जितना एक माँ को अपने बच्चे के मुँह से पहली बार माँ सम्बोधन सुनकर होती है। अपने उन आँसुओं को छुपाने के लिए मैं फिर रसोई की तरफ बढ़ गई।

— नीता सैनी, दिल्ली

नीता सैनी

जन्म -- 22 oct 1970 शिक्षा -- स्नातक लेखन -- कविता , लघुकथा प्रकाशन -- पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित संपर्क -- घर का पता 117 , मस्जिद मोठ , नई दिल्ली - 110049 पत्र व्यवहार के लिए ऑफिस का पता -- नीता सैनी - न्यू जगदम्बा टेंट हाउस L - 505 / 4 -- शनि बाजार संगम विहार , नई दिल्ली - 80