धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सच्ची स्तुति करने वालों को ईश्वर असंख्य ऐश्वर्य एवं अतुल विज्ञान देता है

ओ३म्

ईश्वर ने समस्त चराचर जगत को बनाया है। वही इसका पालन कर रहा है और वही इस ब्रह्माण्ड की अवधि पूर्ण होने पर इसकी प्रलय करता है। हमारे भीतर ज्ञान प्राप्ति की जो क्षमतायें हैं उसका अधिक से अधिक प्रयोग करके भी हम इस ब्रह्माण्ड की विशालता व इसके स्वरूप को पूर्णता से नहीं जान सकते। यह सब ईश्वर ने अपनी अनादि प्रजाओं अर्थात् जीवात्माओं के सुख व कल्याण के लिए बनाया है। जीवात्माओं को उनके पूर्व कल्प, सृष्टि वा जन्म के कर्मों के अनुसार परमात्मा मनुष्यादि योनियों में जन्म देता है जिससे हम अपने शुभाशुभ कर्मों के फलों का भोग कर सकें और वेद ज्ञान प्राप्त कर तथा उसके अनुसार शुभ कर्मों को करके ईश्वर का साक्षात्कार कर सकें। ईश्वर का साक्षात्कार ही हमें सभी दुःखों से मुक्त करता है। ईश्वर साक्षात्कार से मनुष्य जन्म व मरण के सभी दुःखों से मुक्त होकर अपनी आत्मा व संकल्प शरीर के साथ 43 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द का भोग करता हुआ निवास करता है। मुक्ति वा मोक्ष प्राप्त करना ही जीवात्मा वा मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। आत्मोन्नति, जीवनोन्नति वा मोक्ष की प्राप्ति के लिए ईश्वरीय ज्ञान वेदों का अर्थ सहित ज्ञान, तदनुकूल कर्मों को करना एवं ईश्वरोपासना करते हुए समाधिस्थ अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार करना आवश्यक है। वेद सहित इस कार्य में महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन का ज्ञान व क्रियात्मक अभ्यास अनिवार्य है। सृष्टि काल के आरम्भ से हमारे समस्त ऋषि, महात्मा, महापुरुष, राम, कृष्ण, दयानन्द आदि इसी जीवन पद्धति को अपनाकर अपने जीवन का कल्याण करते रहे हैं और मोक्ष आदि जीवन उन्नति कर ईश्वर का आनन्द भोगते रहे हैं। वैदिक त्रैतवाद की जीवन पद्धति के कारण हमारा देश महाभारतकाल पर्यन्त विश्व का गुरु भी रहा है।

यजुर्वेद के 36 वें अध्याय का छठा मन्त्र अभी णु णः सखीनामविता जरितृणाम्। शतम्भवास्यूतिभिः।।’ है। इस मन्त्र में शतम्’ पद आया है जिसका अर्थ ऋषि दयानन्द ने असंख्यम् किया है। संस्कृत में इस मन्त्र के पदार्थ में ऋषि ने इसका अर्थ करते हुए कहा है कि मनुष्याणामसंख्यमैश्वर्यमतुलं विज्ञानं प्रदाय’ अर्थात् मनुष्यों को असंख्य ऐश्वर्य और अतुल (अधिकतर) विज्ञान देकर सब ओर से रक्षा करता है। मन्त्र में दो पद सखीनाम् और चरितृणाम् भी आये हैं। इनका अर्थ ऋषि ने मित्र और सत्य स्तुति करने वाले किया है। महर्षि का कहना है कि ईश्वर अपने मित्रों (ईश्वर के मित्र वह होते हैं जो वेदाध्ययन उपासना से अपने गुण, कर्म, स्वभाव आचरण को ईश्वर के अनुरूप बनाने का प्रयास करते हैं या बना लेते हैं) और सत्य स्तुति (ईश्वर के सत्य गुण, कर्म, स्वभाव का अपनी वाणी से बारम्बर वर्णन उसके अनुरूप स्वयं को बनाना) करने वालों को असंख्य प्रकार के ऐश्वर्य एवं ज्ञान-विज्ञान प्रदान कर उनकी रक्षा करता है।

महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश एवं अन्य ग्रन्थों में ईश्वर की प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाणों से सिद्धि की है। सत्यार्थप्रकाश का प्रत्येक पाठक ज्ञान व विज्ञानपूर्वक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता हुआ वैदिक विधि से उसकी सन्ध्या व उपासना करता है। अनेक उपासक ईश्वरोपासना से अपने जीवन का सुधार करते हैं और अनेक ऐसे भी देखे जाते हैं जो सन्ध्या यज्ञ करते हुए भी अनेक प्रकार के मिथ्या आचरण व व्यवहारों को करते हैं। आर्यसमाज में परस्पर पदों के लिए लड़ने वाले व मुकदमें बाजी में संलिप्त सभी लोग ईश्वर, वेद व ऋषि दयानन्द को मानते हैं परन्तु फिर भी वह पदों से सम्बन्धित अपने विवादों को हल नहीं कर पाते और सरकारी न्यायालयों की शरण लेते हैं। स्वाध्याय करने पर यह तथ्य भी सामने आता है कि मनुष्य को मनसा, वाचा व कर्मणा एक समान होना चाहिये। सगठन सूक्त भी हमें अपने मन व हृदय को शुद्ध व पवित्र रखने की प्रेरणा करता है और स्वार्थों से ऊपर उठकर त्याग भाव से जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा करता है। जिन लोगों के हृदय व मन शुद्ध हैं तथा जो वेदों की शिक्षाओं को जीवन में धारण कर आचरण करते हैं, उनको ईश्वर निश्चय ही असीम सुख व आनन्द सहित अपने असंख्य ऐश्वर्य एवं विज्ञान को प्रदान करता है। हमें ईश्वर व उसकी व्यवस्था में विश्वास होगा तभी हम उसके आशीर्वाद व ऐश्वर्यों को प्राप्त कर उसका अनुभव कर सकते हैं। इसको समझने के लिए हम कुछ अन्य प्रकार से विचार करते हैं।

हम शरीर नहीं अपितु आत्मा हैं। आत्मा अतिसूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान, अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, जन्म-मरण धर्मा, कर्मानुसार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होने वाला तथा ईश्वर की पक्षपातरहित न्याय-व्यवस्था से अपने कर्मानुसार मनुष्यादि अनेक प्राणी योनियों में अपने कर्मों का भोग करने वाला है। ईश्वर किसी भी मनुष्य का चाहे वह नास्तिक है या आस्तिक हो, कर्मों के फलों को क्षमा नहीं करता। सबको अवश्यमेव अपने किये हुए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। ईश्वर की यह व्यवस्था आदर्श एवं छिद्र रहित व्यवस्था है। ऐसी जीवात्मा अर्थात् हम हैं। हमारी उस जीवात्मा को परमात्मा ने इस जन्म में मनुष्य का शरीर दिया है। यह मनुष्य शरीर सुखोपभोग सहित ज्ञान प्राप्ति व ईश्वर भक्ति सहित कर्मोपासना का साधन है। इस जीवन में हम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुरूप साधना व कर्मों को करके जन्म व मरण से अवकाश प्राप्त कर सकते हैं। इस कार्य के लिए ही परमात्मा ने हमें यह मनुष्य शरीर दिया है। हमारा यह शरीर क्या असंख्य ऐश्वर्यों से किसी प्रकार से कम है? हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्म इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार हैं। यह सब मूल प्रकृति के सूक्ष्म कणों से बने हुए हैं। यह सभी सूक्ष्म शरीर का भाग हैं। इसके अतिरिक्त परमात्मा ने हमें स्थूल शरीर भी दिया है। शरीर में ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं अन्तःकरण चतुष्टय सहित हमारे पास भौतिक हृदय, फेफड़े, यकृत, गुर्दे, उदर, पाचन तंत्र, मल-मूत्र विसर्जित करने वाले संस्थान आदि अनेक प्रकार के अवयव हैं। यह सब भली प्रकार से अपना कार्य करते हैं। रूपये पैसे में हम अपने शरीर का मूल्य नहीं आंक सकते। हमारा स्वस्थ शरीर सभी धन वैभव से बढ़कर है। संसार के सभी धन वैभव हमारे स्वस्थ शरीर के सम्मुख तुच्छ हैं। हमें केवल आसन, प्राणायाम व शुद्ध भोजन सहित वायु सेवन हेतु भ्रमण करना ही पर्याप्त होता है। हमारा यह शरीर ही सुखोपभोग का कारण व साधन है। हम वर्षों से इस शरीर से सुख भोग रहे हैं। हमें तो यह शरीर ही असंख्य ऐश्वर्य के समान प्रतीत होता है। ज्ञान प्राप्ति, पुरुषार्थ और शुभ कर्मों को करके हम जीवन के सुख के लिए आवश्यक सभी पदार्थों को जुटा सकते हैं। ऐसा जीवन ही सुखी जीवन होने सहित यशस्वी व कीर्तिवान् होता है। ऐसा जीवन ही समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न और विज्ञान से युक्त होता है और साथ ही ईश्वर से रक्षित होता है। ऐसे मनुष्य द्वारा जब कभी किसी असावधानी व अज्ञानतावश कोई .त्रुटि होकर दुर्घटना आदि होने को होती है तो परमात्मा उन क्षणों में हमारी रक्षा कर हमें उनसे होने वाले दुःखों से बचाता है। ऐसे हमारे व अन्यों के भी अनेक उदाहरण हैं।

ईश्वर से असंख्य ऐश्वर्यों एवं विज्ञान की प्राप्ति सहित जीवन की रक्षा के लिए हमें ईश्वर की सत्य स्तुति अर्थात् वेदों एवं ऋषिकृत ग्रन्थों का स्वध्याय, ईश्वर की सन्ध्या, उपासना व अग्निहोत्र यज्ञ आदि का नियमित रूप से अनुष्ठान करना चाहिये। ऐसा करके हम ईश्वर के मित्र बनकर उससे असंख्य सुख रूपी ऐश्वर्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। हमने यहां कुछ संक्षिप्त चर्चा कर अपने मन के विचारों को प्रस्तुत किया है। यदि किसी पाठक को यह उपयुक्त लगते हैं तो इसे प्रस्तुत करने में हमारा किया गया श्रम सफल होगा। इति ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य