मुक्तक/दोहा

“मुखपोथी पर लोग”

मुखपोथी के झाड़ में, कच्चे-पक्के बेर।
जिन्हें न आती शायरी, वो भी कहते शेर।।

सिद्ध हो रही साधना, सफल हुआ उद्योग।
अपनी बातें लिख रहे, मुखपोथी पर लोग।।

भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।
उजड़ रहा है इसलिए, हरा-भरा परिवार।।

आँगन में जब हो खड़ी, नफरत की दीवार।
फिर कैसे परिवार का, बन पाये आधार।।

आजादी के बाद तो, बिगड़े हैं हालात।
बचपन कचरा बीनता, लज्जा की है बात।।

सड़कछाप था समझता, कल तक जिन्हें समाज।
उल्लू सीधा हो गया, उन लोगों का आज।।

अपने प्यारे देश में, निर्धन हुए विपन्न।
राजनीति करके हुए, जनसेवक सम्पन्न।।

मक्कारी पामाल है, खुद्दारी बेहाल।
कल तक जो बेकार थे, अब हैं मालामाल।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है