मुक्तक/दोहा

मुक्तक दोहा

पीर पथराई पिघल कर गीत बनने को विकल है,
और नंगे घाव कहते हैं मुझे चादर ओढ़ाओ।
जिंदगी! आधी सदी चल कर यहां तक आ गया पर,
मार्ग कितना कंटकों का शेष है कुछ तो बताओ!
हमारे शब्द अनगढ़, अर्थ बौने, व्याकरण दूषित,
अगर कुछ शुद्ध पढ़ना हो तो मेरा मौन पढ़ लेना!!
नीरज सचान

नीरज सचान

Asstt Engineer BHEL Jhansi. Mo.: 9200012777 email -neerajsachan@bhel.in

One thought on “मुक्तक दोहा

  • विजयता सूरी

    Bahut khoob jii

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