कविता

तुम कब समझ पाओ गे

मेरी जज्बातो को तुम कब समझ पाओ गे
या समझ कर भी ना समझ रह जाओ गे

क्या चाहते हो कब बताओ गे
या समझ कर भी ना समझ रह जाओ गे

तुम को भूल जाऊ या
तुम में खुद को भुला दू

इस फसाने को क्या बोलू ये तो बता दो

कुछ बोलो गे या ऐसे ही मुस्कुराओ गे
मेरी जज्बातो को तुन कब समझ पाओ गे

ऐसे ही सितम डालो गे
या कभी खुशियाँ भी छलकाओ गे

मेरी जज्बातो को तुन कब समझ पाओ गे
या समझ कर भी ना समझ रह जाओ गे

रवि प्रभात

पुणे में एक आईटी कम्पनी में तकनीकी प्रमुख. Visit my site