गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

रिश्तों के लिए खुदको बदलते चले गए
शोला थे मोम बनके पिघलते चले गए।
आह से वाह की तासीर कम न हो कहीं
खामोशियों की आग में जलते चले गए।
ये उम्मीद का धागा जब टूटा है हाथ से
बिखरे तो मोतियों सा बिखरते चले गए।
हां ये मंजूर नहीं अपना बेचू जमीर मैं
जाने कितने शहंशाह हाथ मलते चले गए।
मुद्दत के बाद उनसे जब सामना हुआ
आंखों से अश्क आज निकलते चले गए।
ना बेवफा रहे तुम ना बेअदब हुए हम
वो हालात ही ऐसे थे बदलते चले गए।
चौखट मिली मुझे ना जन्नतए जहांन की
जिंदगी के दलदल में फिसलते चले गए।
कहने लगे हैं लोग जानिब  शुक्र तेरा है
पढ़ कर गज़ल तुम्हारी दिल बहलते चले गए।
पावनी जानिब, सीतापुर

*पावनी दीक्षित 'जानिब'

नाम = पिंकी दीक्षित (पावनी जानिब ) कार्य = लेखन जिला =सीतापुर

One thought on “ग़ज़ल

  • डॉ मीनाक्षी शर्मा

    बेहतरीन ग़ज़ल…रिश्तों के लिए खुद को बदलते चले गए

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