सामाजिक

इच्छा मृत्यु

नानी माँ ठीक़ ही तो कहती थी, जो बच्चे बचपन में ‘लोरियों ‘ से चूक जाते हैं, ताउम्र उनींदे ही रहते हैं… मैं भी शायद उन्हीं में से एक हूँ! था तो मेरा भाई, मगर मेरे जीवन में इस से बड़ा दुश्मन था ही नहीं कोई! लगभग सवा साल छोटा था। माँ के आँचल के साथ साथ, माँ की लोरी, माँ की छुअन की वो शीतल-गर्माहट के साथ ही मेरे शरीर के सर्वाधिक उपयोगी शक्ति ‘रोग-प्रतिरोधक क्षमता’ भी ले गया… वैसे तो हिन्दू समाज में बड़े भाई को बनवास और कारावास के इतर मिलता ही क्या है ?
वो शादी के बाद भी छोटा ही रहा और हम तो भाई पैदा ही बड़े हुए थे…
७०वा सावन अंतिम सांस पर हैं… लोरी की कमी आज भी अखरती है. जब भी बिस्तर पर जाता हूँ… ग़ालिब का मुआं वो अशआर याद आ जाता है… ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है… नींद क्यों रात भर नहीं आती’ अरे मियां मुई नींद आए तो कैसे आए…बचपन से ही नींद की लोरी नहीं मिली… सब छीन के ले गया मेरा दुश्मन मेरा भाई। नई नवेली दुल्हिन की मानिंद
हर रात आती है… हम उसके लिए बढ़िया से बेहतर बिछौने अपनी उनींदी आखों की पलकों पर बिछाते हैं… आते ही इक फरमाइश… लोरी! वो तो माँ के पास थीं…मेरे हिस्से की भी भाई को सुना गई, तभी तो बहुत पहले गहरी नींद सो गया…और हमें छोड़ गया कॉमपोज़, अल्प्रेक्स, दूज़ेला और ज़ोल्फ्रेस के सहारे।
रोज़ खूब सोच के पड़ता हु! आज किसी सहारे को नहीं लूँगा… आते ही उस सुर्खाब के पर वाली को पूछूंगा! अब तो आ जा और आ के न जा… देख तुझे जान से भी सिवा चाहते है… बस एक बार!

एल आर गाँधी

स्वतन्त्र पत्रकारिता. सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व जनमानस को जागृत करने के लिए "उत्तिष्ठ कौन्तेय" नामक ब्लाग लिखता हूं. पत्रकारिता. स्नातकोतर हिंदी gandhilr.blogspot.com