कविता

कविता : पिता-पर्वत

पिता पर्वत समान
जहाँ मिलता है सुखद विश्राम।
वह रोक लेते है
अपने ऊपर
प्रतिकूल आंधी और तूफान।
मिलता है सहज संरक्षण
तपिश में
 वर्षा जल की  शीतल  बूंदे
दूर रहता है संताप।।
      पिता -पर्वत समान।।
पिता के जाते ही
अदृश्य हो जाता है
 प्रकृति का यह वरदान
नहीं दिखाई देता है,
कोई पर्वत ,जो रोक ले
आपदा के सैलाब।।
दूर-दूर तक
सून-सान -सपाट।।
पिता पर्वत समान।।
तुम्हारे वियोग के साथ ही
चला जाता है बचपना
आ जाता है
जिम्मेदारियों का पहाड़
पार हो जाते है
एक साथ
उम्र के कई पड़ाव।।
याद आता है तुम्हारा
बाहर से कठोर दिखना
कभी डांटना,
कभी हाथ थाम कर दिखाना राह।
 छुपाने से भी
नहीं छिपता था
भीतर का स्नेह-करुणा
का भाव।।
पिता -पर्वत समान।।
मैं जानता हूं
तुम नहीं आओगे देखने
कोई भी कर्मकांड
लेकिन आज भी हर पल
रहते हो साथ
आज भी स्मृतियों से
मिलता है सम्बल
जीवन के प्रति विश्वास।
पिता पर्वत समान।।
— डॉ दिलीप अग्निहोत्री

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

लखनऊ मो.- 9450126141