लघुकथा

सच्चा सुख

 

तीन मित्रों में बहस चल रही थी । विषय था सच्चा सुख क्या होता है ? उनमें से एक राम ने कहा ,” भैया ! मैं तो कहूँ ! अपनी सारी जिम्मेदारी पूरी हो जावे और बेटे बहू के साथ रहते हुए पोतों संग खेला जावे और हंसी खुशी वक्त बीत जावे इससे बढ़कर और क्या सच्चा सुख हो सकता है ? ”
दूसरा जिसका नाम श्याम था बोला , ” इसमें कौन सा सुख है ? बेटे और बहू होंगे तो पोते भी होंगे ही ! पैसा न हो तो सब बेकार है । इसलिए भरपूर पैसा कमा लिया जाय वही सच्चा सुख है । ”
अब घनश्याम की बारी थी । उसने कहा ,” बेटे बहू व पोते तो अपने होते हैं जो स्वार्थ व मोहवश आपका साथ देते हैं । कई लोगों के विपरीत अनुभव भी होते हैं । सभी जानते हैं पैसे से सबकुछ खरीद सकते हो लेकिन आत्म संतुष्टि व मन की शांति नहीं खरीद सकते । मन को शांति मिलती है किसी की मदद करके , किसीके कुछ काम आकर ,या किसी को कुछ देकर ! कुल मिलाकर किसी को कुछ देने से ही सच्चा सुख प्राप्त होता है । ”
तभी एक युवक तीनों के समक्ष आया और एक पर्ची दिखाकर बोला ,” अंकल ! मुझे इस पते पर पहुंचना है । कृपया बताएं यहां से कितनी दूर है ? ”
राम ने पर्ची देखी और बताया ,” आर्या नगर ! यह तो शहर से बाहर की तरफ नई बस्ती बनी है उसी का नाम है । यहां से लगभग सात किलोमीटर दूर है । ”
सुनते ही उसका चेहरा बुझ गया । सिर झुकाए वह सड़क के किनारे से जाने लगा । श्याम ने उसे आवाज दी ,” क्या बात है ? कुछ परेशान लग रहे हो ? ”
सकुचाते हुए वह रुका और फिर कहने लगा ,” दरअसल वहां आर्या नगर में मेरे चाचा रहते हैं । मैं अभी सीधे गांव से ही आ रहा हूँ । ट्रेन में किसी ने मेरी जेब साफ कर ली । फिर भी मैं मायूस नहीं था क्योंकि दूसरी जेब में ट्रेन के टिकट के साथ यह कागज भी सलामत था। सोचा ट्रेन से उतरकर चाचा के यहां तो पैदल भी जा सकता हूँ । कुछ ज्यादा दूरी है लेकिन कोई बात नहीं ! देर सवेर अवश्य पहुंच जाऊंगा ! ”
तभी घनश्याम ने अपनी जेब से उसे सौ रुपये देते हुए कहा ,” ये रख लो ! और वहां आगे नुक्कड़ से ऑटो पकड़ लेना । ”
” नहीं ! नहीं ! अंकल जी ! आपका बहुत बहुत धन्यवाद ! ” कहते हुए वह जाने लगा ।
तभी श्याम ने उसे पुकारते हुए कहा ,” सुनो ! मैं उसी तरफ जा रहा हूँ । मेरी मोटरसाइकिल पर बैठ जाओ ! ”
” जी ठीक है ! ” कहते हुए वह श्याम की बाइक पर बैठ गया ।
उसे छोड़ने के बाद श्याम जैसे ही मुड़ा उस युवक ने उसे आवाज दी ,” अंकल ! आप तो शायद आगे जानेवाले थे । ”
” नहीं बेटा ! वो तो मैंने यूँ ही बोल दिया था । क्योंकि किसी जरूरतमंद की मदद करके मिलने वाली खुशी का अनुभव करना चाहता था । अब वाकई बहुत अच्छा लग रहा है । आज मुझे पता चला कि किसी जरूरतमंद की मदद करने में जो आत्मिक शांति व सुख की अनुभूति मिलती है वह और कहीं नहीं । ”
कहने के बाद श्याम एक पल को भी वहां रुका नहीं था ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

4 thoughts on “सच्चा सुख

  • ज्योत्स्ना पाॅल

    सुख की परिभाषा बताना बहुत कठिन है पर आपने सहजता से परिभाषित किया है, सुंदर!

  • ओमप्रकाश क्षत्रिय "प्रकाश"

    सुंदर रचना. हार्दिक बधाई .

  • जवाहर लाल सिंह

    वाह ! क्या दृष्टान्त के साथ आपने सच्चे सुख को समझाया है! बहुत ही सुन्दर!

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बिलकुल सही बात है राजकुमार भाई , जो सुख देने में है वोह लेने में नहीं .

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