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कश्मीर: समस्या आखिर समाधान क्या है

एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री रह चुके सैफुद्दीन सोज के एक बयान से विवाद खड़ा हो गया है। उन्होंने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के उस बयान पर सहमति जताई है जिसमें उन्होंने कहा था कि आजादी कश्मीरियों की पहली पसंद है। ऐसे बयानों से भले ही मीडिया को मसाला मिलता रहा हो लेकिन इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि घाटी को सुलगाने में अरसे से ऐसे ही बयान चिंगारी बनते रहे हैं। ऐसे बयानों से ही आतंकी संगठन उनके आर्थिक और मानसिक पेरोकारों को खुराक मिलती रही है। इस सबसे आम कश्मीरी के लिए यह धारणा आसानी से पहुंच जाती है।

अचानक 19 जून को भाजपा द्वारा गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लिए जाने के बाद वहां उपजे राजनितिक संकट को देखते हुए कई महत्त्वाकांक्षी नेता मैदान में इस तरह के बयान देकर एक विशेष धारणा के लोगों को खुश करते दिख रहे हैं। जिसकी वाहवाही पड़ोसी देश से भी उन्हें बराबर मिल रही है। लेकिन इस सबके बीच यह कोई नहीं समझ पा रहा है कि जो कश्मीर कभी दो देशों भारत और पाकिस्तान का विवाद हुआ करता था, आज एक इंडस्ट्री बनकर रह गया है। आतंकियों का अपना अलग फार्मूला है उन्हें इस्लाम चाहिए, उनकी मांग को पुख्ता करने वाले अलगाववादियों को पडोसी देश पाकिस्तान तथा विदेशों से फंड मिल रहा है। जिससे उनकी जिन्दगी मजे से कट रही है। कश्मीरी राजनितिक घरानों को सत्ता और युवा बेरोजगार लोगों को पत्थरबाजी से रोजाना दिहाड़ी मिल रही है। इन युवाओं को मस्जिदों से उकसाने वाले मुल्ला-मोलवियों को मोटी पगार मिल रही है कहा जा रहा कि इंडस्ट्री का हिस्सा बने इन मुल्ला-मौलवियों ने खुदा की बंदगी छोड़कर अलगाववादियों की बंदगी शुरू कर दी है। धर्म स्थलों में खुदा की खिदमत में बजने वाली नज्म के बजाय अब वहां आजादी के तराने आसानी से सुन सकते हैं।

इस नये उद्योग का अगर अध्यन करें पता चलता है कि इसका फायदा पत्थरबाजों, कथित धर्मगुरुओं, कश्मीरी नेताओं और अलगाववादियों तक ही सीमित नहीं है शायद इसका लाभ देश के बाहर भी संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकारों के उच्चायुक्त जायद बिन राड अल हुसैन तक भी पहुँच रहा है तभी तो यूएन की रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय रूप से चिह्नित और खुद यूएन ने जिन आतंकी समूहों को प्रतिबंधित किया है उसे ‘‘हथियारबंद समूह’’ और चरमपंथियों को चीयरलीडर्स  कहा गया है। सैनिकों पर हमला करने वाले पत्थरबाजों को मासूम और इन दोनों के बीच पिसती भारतीय सेना की कार्यवाही पर सवाल उठाये गये हैं।

इस समय देश के विपक्ष को देखें तो लगता है जैसे कश्मीर के सारे समाधान उनकी जेब में हैं बस ये सरकार हटें और वे चुटकी बजाकर समाधान कर दें। पर क्या ऐसा वास्तव में है या हो सकता है? यदि है ऐसा है तो फिर वो चुटकी आजादी के करीब 60 वर्ष राज करने के दौरान क्यों नहीं बजाई गयी? मुख्यधारा की राजनीति से दूर अलगाववादी कोई नवजात शिशु तो है नहीं, कि कल परसों पैदा हुए हां! उन्हें पैदा करने वाले भी जरूर कोई रहे ही होंगे और उनका पालन पोषण किसकी सरकार के दौरान हुआ है। जहाँ आज ये सवाल उठाये जाने थे आज वहां सैफुद्दीन सोज जैसे लोग कश्मीरी अलगाववादियों और सीमा पार बैठे उनके आकाओं की धारणा को पुष्ठ करने में लगे हैं।

हालाँकि कश्मीर में हर एक घटना के बाद सबके अपने-अपने समाधान होते हैं। राजनेताओं के अपने समाधान होते है, मीडिया में बैठे लोगों को देखें तो मुँहतोड़ जवाब देने की बात होती ही रहती है। पर जवाब क्या हो, कैसे दिया जाये? समस्या बस इतनी-सी है। खबरों की सबसे तेज आधुनिक मंडी सोशल मीडिया पर हर किसी के अपने समाधान है और न जाने कितने समाधान लोग अपनी-अपनी सोशल मिडिया वाल पर हर रोज चिपकाते हैं। लेकिन! कोई तो वजह होगी जो इतना पुराना मामला अधर में लटका पड़ा है।

वजह यही है कि सरकार जानती है कि कहना अलग बात, लेकिन ऐसे समाधान चुटकियाँ बजाते होते तो कब के हो गये होते। अलगावाद से कैसे निबटें? हमारी समस्या यह है कि अलगावादियों के पास तो उसकी खास पाक प्रायोजित आजाद कश्मीर नीति है, जिससे वह आज तक कभी टस से मस नहीं हुए। सत्ता चाहे जिसके पास रही हो, लेकिन हमारे पास अलगावादियों के लिए कोई स्पष्ट सन्देष नहीं है सिवाय इसके कि दो दिन किसी अलगावादी नेता को नजरबन्द कर दे या एक हफ्ते के लिए गिरफ्तार करले इससे ज्यादा हमने अभी तक क्या किया?

सिर्फ बयानबाजी, निन्दा या करारे जवाब शायद इससे आगे अभी तक हम नहीं बढ़ पाए। हमारा तो एक भी जवान शहीद होता है, तो हमें बहुत दर्द होता है, लेकिन आतंकियों या अलगावादियों के पास ऐसी दर्द भरी संवेदना नहीं है। उनके 100 भी मर जाएं, तो उन्हें परवाह नहीं होती। वे मजहब के नाम पर 500 और खड़े कर लेंगे हम 500 मार देंगे, तब भी उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि वे अपने भाड़े के हत्यारों की कद्र नहीं करते। वे अपने द्वारा तैयार किये गये आतंकियों को सेना की बन्दूक की भूख मिटाने का चारा समझते हैं। वे चाहते हैं सेना इन पत्थरबाजों की भीड़ पर गोली चलाये, दो मरे या सौ उससे उनका मकसद सफल होता है ताकि जायद बिन राड अल हुसैन जैसे बिके हुए लोग उनकी लाशें संयुक्त राष्ट्र को दिखाते रहें कि देखिये साहब भारतीय सेना का जुल्म।

शायद इससे जो मकसद हम चाहते हैं, वह हासिल नहीं होगा। हमारा मकसद तो यही है न कि अलगावादी पत्थर परोसना बंद कर दे। तो हमें पहले कड़ी कारवाही अलगावादी नेताओं पर करनी होगी। हमें कश्मीर आबाद रखना है, वे हमारे नागरिक हैं उन्हें अलगावादियों का मोहरा क्यों बनने दे? कहा जाता है सिर्फ पांच प्रतिशत या इससे भी कम कश्मीरी होंगे, जो पाकिस्तान समर्थक हैं या जिनमें भारत विरोधी भावना है। बाकी 95 फीसदी भारत के साथ रहना चाहते हैं, लेकिन अलगावादियों द्वारा गली के नुक्कड़ पर खड़ें किये मजहबी गुंडों और आतंकियों की गोली के डर से वे उनकी ही बात सुन रहे हैं। जिस दिन सरकार उनका यह डर खत्म कर देगी उसी दिन वे देश के गीत गाना शुरू कर देंगे। वरना जिस तरीके वे अपने मकसद में सफल हो रहे हैं ज्यादा समय नहीं लेंगे कश्मीर को सीरिया बनाने में।

लेख-राजीव चौधरी

 

राजीव चौधरी

स्वतन्त्र लेखन के साथ उपन्यास लिखना, दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स के लिए ब्लॉग लिखना