लघुकथा

मार्केटिंग फंदा

“अच्छा बड़ी खुशी की बात है, कब ज्वाइन किया आपने?
वाह! अब तो पार्टी बनती है। नहीं …नही मुझे अभी कोई इन्श्योरेन्स नहीं करवानी।”
पति फोन थामे ना जाने किनसे बात कर रहे थे,चेहरे का मनोभाव चढता उतरता देख आशा की उत्सुकता चरम पर पहुंच रही थी।
किनसे बातें हो रही थी….
अरे संजय की पत्नी मोना किसी प्राइवेट इन्श्योरेन्स की ऐजेंट बनी हैं।मीठी मीठी बातों में उलझाकर पालिसी लेने की जिद कर रहीं थीं। बता रहीं थीं कि उनके लक्ष्य पूरे करने के लिए कुछ और क्लाइंट को पालिसी देना होगा, फिर “सीनियर एडवाइजर” की पोस्ट मिल जायेगी। संजय की तो लाटरी लग गई… बला की खुबसूरत और अब कमाऊ भी।
आशा ने राजगी से पति को देखा । कुछ कहना चाहकर भी बात आगे ना बढे यह सोचकर चुप लगा बैठी।
सीमित समय में लक्ष्य पूरा ना होते देख मोना ने फंदे फेंकना शुरू किया। अधिक राशि की पालिसी करवाने वाले के साथ एक दिन शहर के सबसे बड़े होटल में अपने साथ डिनर करने का प्रस्ताव रखा। रंगीन मिज़ाज के लोगों की कमी नहीं है। फटाफट कस्टमर मिलते गये। इन्श्योरेन्स का धंधा फलता फूलता गया।
सभी खुबसूरत बाला के साथ डिनर के सपने देख रहे थे। लक्ष्य पूरा होने की खुशी में मीटिंग रखी गई।
… आप लोगों को बताते बड़ी प्रसन्नता हो रही है आप लोगों के कारण मैने प्रमोशन पा लिया। मि. संजय ने सबसे अधिक राशि की पालिसी ली थी, इस कारण वो हमारे साथ डिनर के हकदार बनते हैं।
मोना की बात सुन सन्नाटा छा गया, एकाएक बातें होने लगी अरे ! ये तो इनका पति है।
मोना मार्केटिंग फ़ंडा में रेस जीत गयी। लोग आँखे फाड़कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहे थे।

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।