धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

योग विद्या, बुद्ध एवं अम्बेडकरवादियों का असत्य प्रलाप

एक अम्बेडकरवादी सोशल मीडिया में चिल्लाता हुआ मिला।बोला कि हिन्दू समाज ने योग विद्या महात्मा बुद्ध से सीखी है। कई देर तक में पहले तो हँसता रहा। फिर एक पुरानी कहावत स्मरण हो आयी। जुठ को हज़ार बार बोलो वह सच लगने लगेगा। इन अम्बेडकरवादियों की रणनीति भी यही है। इसलिए मुझे यह लेख लिखना पड़ा कि इस भ्रम का निवारण हो जाये। योग विद्या का उदगम बुद्ध से नहीं अपितु वेदों से हुआ हैं। वेदों में अनेक मन्त्र मिलते है। जो योग विद्या का प्रतिवादन करते हैं। वेदों में योग वदया का सन्देश देते कुछ मंत्र
युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितु: परिष्टुति:।। -ऋ० ५/८१/१
पदार्थ:- (युञ्जते मन:) इसका अभिप्राय यह है कि जीव को परमेश्वर की उपासना नित्य अर्थात योग करना उचित है। उपासना समय में सब मनुष्य अपने मन को उसी में स्थिर करें और जो लोग ईश्वर के उपासक (विप्रा:) अर्थात् बड़े-बड़े बुद्धिमान् (होत्रा:) उपासना योग के ग्रहण करने वाले हैं वे (विप्रस्य) सबको जानने वाला (बृहत:) सब से बड़ा (विपश्चितः) और सब विद्याओं से युक्त जो परमेश्वर है, उसके बीच में (मन: युञ्जते) अपने मन को ठीक-ठीक युक्त करते हैं तथा (उत धियः) अपनी बुद्धिवृत्ति अर्थात् ज्ञान को भी (युञ्जते) सदा परमेश्वर ही में स्थिर करते हैं। जो परमेश्वर इस सब जगत् को (विद्धे) धारण और विधान करता है (वयुनाविदेक इत्) जो सब जीवों के ज्ञानों तथा प्राज्ञ का भी साक्षी है, वही एक परमात्मा सर्वत्र व्यापक है कि जिससे परे कोई उत्तम पदार्थ नहीं है (देवस्य) उस देव अर्थात् सब जगत् के प्रकाशक और (सवितु:) सबकी रचना करने वाले परमेश्वर की (परिष्टुति:) हम लोग सब प्रकार से स्तुति करें। कैसी वह स्तुति है कि (मही) सबसे बड़ी अर्थात् जिसके समान किसी दूसरे की हो ही नहीं सकती।
युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितु: सवे।
स्वग्र्याय शक्तया।। -यजु० ११/२
भावार्थः- जो मनुष्य परमेश्वर की इस सृष्टि में समाहित हुए योगाभ्यास और तत्त्वविद्या को यथाशक्ति सेवन करें, उनमें सुन्दर आत्मज्ञान के प्रकाश से युक्त योग और पदार्थविद्या का अभ्यास करें, तो अवश्य सिद्धियों को प्राप्त हो जावें।
युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वर्यतो धिया दिवम्।
बहज्ज्योति: करिष्यत: सविता प्रसुवाति तान्।। -यजु० ११/३
भावार्थः- जो पुरुष योग और पदार्थविद्या का अभ्यास करते हैं, वे अविद्या आदि क्लेशों को हटाने वाले शुद्ध गुणों को प्रकट कर सकते हैं। जो उपदेशक पुरुष से योग और तत्त्वज्ञान को प्राप्त हो के ऐसा अभ्यास करे, वह भी इन गुणों को प्राप्त होवे।
योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे।
सखाय इन्द्रमूतये।। -यजु० ११/१४
भावार्थः- बार-बार योगाभ्यास करते और बार-बार मानसिक और शारीरिक बल बढ़ाते समय हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त होकर अपनी रक्षा के लिये अनन्त बलवान्, ऐश्वर्यशाली ईश्वर का ध्यान करते हैं। उसी से सब प्रकार की सहायता मांगते हैं।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। -यजु० ३१/१८
भावार्थः- यदि मनुष्य इस लोक-परलोक के सुखों की इच्छा करें तो सबसे अति बड़े स्वयंप्रकाश और आनन्दस्वरूप अज्ञान के लेश से पृथक् वर्त्तमान परमात्मा को योग द्वारा जान के ही मरणादि अथाह दुःखसागर से पृथक् हो सकते हैं, यही सुखदायी मार्ग है, इससे भिन्न कोई भी मनुष्यों की मुक्ति का मार्ग नहीं।
इस प्रकार से वेदों से योग विद्या का उद्गम होना सिद्ध होता हैं। महात्मा बुद्ध तो स्वयं से वेदों को जानने वालों की प्रशंसा अपने जीवन में करते दीखते हैं।
अम्बेडकरवादियों को असत्य बोलने की अपनी आदत से बाज आना चाहिए।
— डॉ विवेक आर्य