धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सत्यार्थ प्रकाश क्यों पढ़े?

ओ३म्

अच्छी ज्ञानवर्धक पुस्तकें सभी मनुष्यों को पढ़नी चाहियें। अनेक पुस्तकों को धार्मिक ग्रन्थों की संज्ञा दी जाती है। धार्मिक का अर्थ होता है जिसमें धर्म के विषय में जानकारी दी गई हो। धर्म शब्द संस्कृत का शब्द है। हमारे विचार से यह न उर्दू में, न अरबी में, न अंग्रेजी में और न विश्व की अन्य भाषाओं में हैं। संसार की सबसे पुरानी भाषा संस्कृत है। यह भी कह सकते हैं कि संस्कृत संसार की सभी भाषाओं का उद्गम है। संस्कृत के शब्दों के अपभ्रंस होकर, भौगोलिक कारणों व उच्चारण दोषों सहित देश, काल व बदलती परिस्थितियों के कारण भाषा व भाषाओं का स्वरूप बदलता रहता है। इसी कारण संस्कृत की विकृतियां होती रहीं और उनसे भाषा में परिवर्तन होते रहे और सृष्टि के आरम्भ से अब तक लगभग 2 अरब वर्षों में अनेक भाषायें अस्तित्व में आयी हैं। सृष्टि का आदि ग्रन्थ वेद है जो संस्कृत भाषा में है। वेद के शब्द रूढ़ नहीं अपितु योग-रुढ़ व यौगिक हैं। संस्कृत की आर्ष व्याकरण व निरुक्त के अनुसार उनके अर्थ जाने जाते हैं। वेद ज्ञान को कहते हैं और वेदों में जो ज्ञान है उसमें ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति सहित मनुष्य के सभी कर्तव्यों व सभी मुख्य सामाजिक रीतियों का ज्ञान व उन्हें करने की प्रेरणा की गई है। महाभारत काल व उसके कुछ काल बाद तक संस्कृत का पूरे विश्व में प्रचार रहा है। उसके बाद विश्वगुरु भारत ने विदेशों में भाषा एवं ज्ञान का प्रचार करना प्रायः बन्द कर दिया था जिससे संसार में भाषा व धर्म के ज्ञान की दृष्टि से अन्धकार छा गया। इस कारण संस्कृत के विद्वान कम होते गये और इसके परिणामस्वरुप वेदों का अध्ययन व अध्यापन भी समाप्त प्रायः हो गया। मीमांसा दर्शन के रचयिता जैमिनी ऋषि हैं। इनके बाद ऋषियों की परम्परा टूट गई।

संस्कृत के अप्रचलित होने व उसका ज्ञान लोगों में न्यून होने से वेदों के सत्यार्थ भी विलुप्त हो गये और उसके स्थान पर अनेक भ्रान्तिपूर्ण मान्यतायें वेदों के नाम पर देश देशान्तर में प्रचलित होती रहीं। वेद के सत्य अर्थों का प्रचार व आचरण न होने से समाज कमजोर हुआ, उसमें विकृतियां आईं ओर नाना प्रकार के अविद्याजन्य मत-मतान्तर उत्पन्न हुए। आठवीं सदी में सिन्ध के राजा यवनों से पराजित हुए। विधर्मियों ने उनकी हत्या कर दी। उनकी पुत्रियों से अनाचार किया गया। इस घटना के बाद देश गुलामी की ओर बढ़ चला। अंग्रेजों की गुलामी आरम्भ होने से पूर्व हम यवनों के गुलाम रहे और इसके बाद अंग्रेजों के गुलाम हो गये। इस गुलामी से सन् 1947 में आजादी मिली और देश का विभाजन होकर देश तीन टुकड़ों भारत, पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में बंट गया। अंग्रेजों की गुलामी के दिनों में ही गुजरात प्रांत के मोरवी राज्य के अन्तर्गत टंकारा ग्राम में ऋषि दयानन्द का जन्म होता है जिन्होंने आगे चलकर भारत में धार्मिक व सामाजिक जागरण के साथ राजनीतिक जागरण का अपूर्व कार्य किया। उनके कार्य को हम धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्रान्ति भी कह सकते हैं। ऋषि दयानन्द महाभारतयुद्ध के बाद वेदों के अपूर्व व उसके सत्य अर्थों के प्रचारक विद्वान थे। उन्होंने डिन्डिम घोषणा की कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है और प्रत्येक मनुष्य के लिए आचरणीय है। वेदों का आचरण ही धर्म है और वेद विरुद्ध आचरण ही अधर्म व पाप है। उन्होंने वेद और ऋषियों की मान्यताओं के आधार पर सत्य धर्म का स्वरूप अपने ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में प्रस्तुत किया है। यह ग्रन्थ विश्व के समस्त साहित्य में अन्यतम है। इससे मनुष्य को अपनी आत्मा का ज्ञान, जीवन का उद्देश्य, परमात्मा का स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव सहित कारण व कार्य प्रकृति का यथार्थ व समुचित ज्ञान होता है। यह ग्रन्थ सभी मनुष्यों के लिए पठनीय है। इसकी विषयवस्तु एवं कुछ विशेषाताओं को आगे की पंक्तियों में बताने का प्रयास कर रहे हैं।

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का प्रयोजन बताते हुए ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में कहा है कि मेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।

ऋषि दयानन्द ईश्वर को सर्वज्ञ एवं जीवात्मा व मनुष्य को अल्पज्ञ मानते हैं। जीवात्मा सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकता। उसका ज्ञान भी बिना ईश्वर के साक्षात्कार व वेदाध्ययन के निर्भ्रान्त कभी नहीं हो सकता। इस कारण इतिहास में जिन जन्मधारी मनुष्यां ने किसी मत व पंथ आदि का आरम्भ व प्रवर्तन किया हैं उन मतों में अविद्या व अज्ञानपूर्ण मान्यताओं का होना सम्भव वा अपरिहार्य है। इसी बात को ऋषि दयानन्द अपने शब्दों में कहते हुए सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं ‘मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस ग्रन्थ (सत्यार्थप्रकाश) में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में अन्य अनेक अति महत्वपूर्ण बातें और भी हैं परन्तु विस्तारभय से हम यहां उनका उल्लेख नहीं कर पा रहे हैं।

सत्यार्थप्रकाश की रचना का एक उद्देश्य यह भी था कि ऋषि दयानन्द जो महत्वपूर्ण उपदेश दिया करते थे, उनसे वही लोग लाभान्वित होते थे जो उपदेश सुनने आते थे। अन्य लोग जो उनके उपदेशों में सम्मिलित नहीं हो पाते थे, वह भी ऋषि दयानन्द के विचारों से लाभान्वित हो सकें, इस कारण लोगों के परामर्श एवं अपनी विवेक बुद्धि से उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखने का निश्चय किया था। इस ग्रन्थ का लाभ भविष्य में समाज, देश व विश्व के सभी लोगों को होना था, यह भी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के लेखन का मुख्य कारण था। इस ग्रन्थ के लेखन से ऋषि दयानन्द के अपने व प्राचीन ऋषियों के विचार जिनके उद्धरण इस ग्रन्थ में हैं, हमेशा के लिए सुरक्षित हो गये हैं। इन सब कारणों से सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का प्रणयन ऋषि दयानन्द ने किया था। सत्यार्थप्रकाश में कुल 14 अध्याय हैं जिन्हें समुल्लास कहा गया है। प्रथम दस समुल्लास पूर्वाद्ध कहलाते हैं और बाद के चार समुल्लास उत्तरार्ध कहलाते हैं। प्रथम समुल्लास में ईश्वर के सौ से कुछ अधिक नामों की व्याख्या की गई है। इस समुल्लास में मंगलाचरण समीक्षा भी है। एक ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व सम्बन्धों से परिचित कराने वाले सौ से अधिक नामों को सत्यार्थप्रकाश पढ़कर जाना जा सकता है। इससे पूर्व इस प्रकार का ईश्वर के सौ से अधिक नामों का प्रस्तुतिकरण व विवेचन किसी अन्य ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता। दूसरे समुल्लास में बालशिक्षा, भूतप्रेतादिनिषेध तथा जन्मपत्रसूर्यादिग्रह समीक्षा सहित इनसे संबंधित अनेक विषयों पर वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों के अनुसार प्रकाश डाला गया है। इस समुल्लास को पढ़कर पाठक का वेद, ऋषियों व स्वामी दयानन्द जी के चरणों में मस्तक झुक जाता है। तृतीय समुल्लास वस्तुत अध्ययन-अध्यापन विषय पर है और इसके साथ इसमें अन्य अनेक विषयों का भी वर्णन किया गया है। इनमें जो अन्य मुख्य विषय वर्णित हुए हैं वह हैं गुरुमन्त्र व्याख्या, प्राणायाम शिक्षा, सन्ध्याग्निहोत्र उपदेश, यज्ञपात्राकृतयः, उपनयन समीक्षा, ब्रह्मचर्योपदेश, ब्रह्मचर्यकृत्यवर्णन, पंचधा परीक्ष्याध्ययन-अध्यापन, पठनपाठन विशेष विधि, ग्रन्थ प्रामण्याप्रामाण्य विषय व स्त्रीशूद्राध्ययन विधि आदि।

चौथे समुल्लास में भी अनेक विषय वर्णित हैं। प्रमुख विषय हैं समावर्त्तन, दूरदेश में विवाह करना, विवाहार्थ स्त्रीपुरुष परीक्षा, अल्पवयसि विवाह निषेध, गुणकर्मानुसारेण वर्ण व्यवस्था, विवाह के लक्षण, स्त्री-पुरुष व्यवहार, पंचमहायज्ञ, पाखण्ड तिरस्कार, प्रातः जागरण, पाखण्डियों के लक्षण, गृहस्थ धर्म, पण्डित के लक्षण, मूर्ख के लक्षण, पुनर्विवाह पर विचार, नियोग विषय, गृहाश्रम की श्रेष्ठता आदि। पांचवें समुल्लास में वानप्रस्थ एवं संन्यासाश्रम की विधि दी गई है। छठे समुल्लास में मुख्यतः राजधर्म, राजा के लक्षण, दण्ड व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, अठ्ठारह व्यस्नों का निषेध, मन्त्रियों के कार्य, दुर्ग निर्माण, युद्ध प्रकार, राज्य की रक्षा, कर ग्रहण, राजा के मित्र, उदासीन व शत्रुओं का विषय, शत्रुओं से युद्ध करने के तरीके एवं व्यापार आदि विषयों का वर्णन है। सातवां समुल्लास महत्वपूर्ण समुल्लास है। इस समुल्लास में ईश्वर, ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना, ईश्वर के ज्ञान का प्रकार, ईश्वर का अस्तित्व, ईश्वर का अवतार होने का खण्डन, जीव की स्वतन्त्रता, जीव और ईश्वर की भिन्नता का वर्णन, ईश्वर की सगुण व निर्गुण भक्ति का वर्णन तथा वेद के विषयों पर विचार किया गया है और वेदों की निर्णायक व निश्चयात्मक मान्यताओं व सिद्धान्तों का वर्णन है। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि उत्पत्ति, ईश्वर से भिन्न सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति का वर्णन, सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति के स्थान का निर्णय, आर्य व इतर मनुष्य जाति के उल्लेख सहित ईश्वर के द्वारा जगत को धारण करने का विस्तार से प्रभावशाली एवं स्पष्ट वर्णन है। दशवें समुल्लास में आचार अनाचार सहित भक्ष्य व अभक्ष्य पदार्थों का वर्णन है। उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में आर्यावर्त्तीय मत-मतान्तर के खण्डन-मण्डन के विषय सहित बौद्ध. जैन, चारवाक सहित क्रिश्चियन तथा यवन मत की समीक्षा की गई है। अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ में ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर निश्चित अपनी निजी 51 मान्यताओं पर प्रकाश डाला है।

सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से मनुष्य सत्य धर्म का निश्चय कर सकता है। उसे अपने कर्तव्य का बोध हो जाता है जिसका पालन कर वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। आर्य समाज की सभी मान्यतायें वेदों पर आधारित एवं वेदानुकूल हैं जो तर्क की कसौटी पर अकाट्य सिद्ध होने के साथ सत्य हैं। सत्यार्थप्रकाश में वेद प्रतिपादित ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप व इनके गुण, कर्म व स्वभाव का जैसा वर्णन है वैसा विश्व के किसी मत वा धर्म के साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। मनुष्य का जीवन ईश्वरोपासन एवं अग्निहोत्र आदि करके श्रेष्ठ व पवित्र बनता है। यह ऐसा जीवन है कि जिसका उल्लेख व ज्ञान भी हमारे अन्य मतावम्बियों को नहीं है। संक्षेप में मनुष्य को वेदाध्ययन कर ज्ञान प्राप्ति होती है और साथ ही सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन कर वह संसार को यथार्थ रूप में जानकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण कर सकता है। जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि कर्तव्यों के द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति में आगे बढ़ता जाता है। वेदों की सभी मान्यतायें सभी ज्ञानी व अज्ञानी मनुष्यों के लिए सत्य एवं आचरणीय हैं। वेद ज्ञान का वटवृक्ष है जिसकी शरण में आने पर अज्ञान व विषयों के सेवन से आक्रान्त व जीर्ण मनुष्य को शान्ति मिलती है और जीवन जीने की सही दिशा प्राप्त होती है। इस कारण से सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश का बार बार धर्म ग्रन्थ मानकर अध्ययन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर एवं उसकी शिक्षाओं पर आचरण कर मनुष्य निश्चय ही उन्नति को प्राप्त होता है तथा वह अपने लक्ष्य के निकट पहुंचता है व उसे प्राप्त करता है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य