भाषा-साहित्य

स्वभाषा का महत्व

स्वतंत्रता सैनानियों ने अपना बलिदान इसलिए दिया था कि उनका देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बने।  उसके लिए उनका मानना था कि भारतीय भाषाएँ हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित हों और हिंदी भारत की संपर्क राष्ट्रभाषा बने।  क्या उनका सपना पूरा हुआ या आज मानसिक गुलामी से पीड़ित हैं जो राजनैतिक गुलामी से कहीं अधिक हानिकारक है। इसका कारण अंगरेजी का बढ़ता वर्चस्व है जिसकी ताकत अंग्रेजों के शासन की ताकत से कहीं अधिक शक्तिशाली है और अंगेजी माध्यम के स्कूली शिक्षा से यह ताकत घर घर में बढ़ती जा रही है।  स्वतंत्रता के बाद स्वार्थवश अंग्रेजी के पक्षधारों  अंग्रेजी के प्रयोग की दी गयी छूट के कारण आज की स्थिति पैदा ही है और उनकी कथनी और करनी में अंतर् के कारण स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। दिखने के लिए भारतीय सत्ताधारी राजनेताओं भारतीय भाषाओँ को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया और हिंदी दिवस पर सत्ताधारी वुद्धजीवी हिंदी के गुणगान करते नहीं थकते और उसके प्रचार के लिए करोड़ों रुपये का अनुदान देते हैं, पर स्वयं प्रयोग नहीं करते। इसी कारण हिंदी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाएं भी अंगरेजी के आगे बौनी पढ़ गयी हैं। परिणाम स्वरूप आज आधी सदी  के बाद भी राष्ट्र गूंगा और उसकी पहचान नहीं है,कोई भी भाषा राष्ट्र की संपर्क भाषा घोषित नहीं हुई है।  हिंदी जब अपने ही प्रदेश में स्थापित नहीं हुई तो उसे राष्ट्र की संपर्क भाषा बनाने का सपना भी पूरा नहीं हो सकता। प्रश्न उठता है की अंगरेजी के वर्चस्व से कौन पीड़ित है या व्यथित है व्यक्ति या राष्ट्र या कोइ नहीं ;यदि नहीं तो चिंतन व्यर्थ है। इसलिए अब समय आ गया है की भारतीय भाषाओँ के प्रतिष्ठापनार्थ विभिन्न पहलुओं पर विचार करें और यदि भारतीय भाषाओँ का प्रतिष्ठापन राष्ट्र हिट में है ,तो उसके लिए दृढ़ता से संगठित होकर प्रयास किया जाय।
भावनात्मक : इसमें विचारणीय  स्वभाषा का मानसम्मान।  हमें स्वभाषा के सम्मान सम्मान के लिए कार्य करना चाहिए।  कोइ भी भाषा सम्मानित तब होती है जब वह ज्ञान विज्ञानं की वाहक हो और अपमानित तभी होती है जब उसका प्रयोग उस प्रयोजन के लिए नहीं किया जाए जिसके लिए उसको निर्धारित किया गया है।  अंग्रेजों के शासन काल हमारी भाषाएँ ु सम्मानित थीं और न ही अपमानित होती थीं पर अब अपमानित भी हो रही हैं।  सबसे अधिक हिंदी अपमानित हो रही है। आज हमारी भाषाएँ राजयभाषाएँ एवं राजभाषा बनी हुई हैं पर हकीकत उनको यह दर्जा प्राप्त नहीं है , अतः वे अपमानित हो रही हैं।  सबसे अधिक अपमानित हिंदी है। इसका कारण स्वभाषा के स्वभिमान का विलप्त हो जाना है।  अतः स्वभाषा को सम्मान दिलाना या उन्हें अपमान से बचने के लिए स्वभाषा के प्रति खोए स्वाभिमान को जगाना है।
सांस्कृतिक :-विचारणीय है कि संस्कृति क्या है और स्वभाषा और संस्कृति का क्या सम्बन्ध है ? क्या यह अध्यात्मवाद एवं अपनापन है या हमारे ग्रन्थ रामायण ,गीता की पूजा पाठ? एक प्रतिष्ठित पत्रकार डॉ झुंनझुनवाले का कहना है कि अपने ग्रंथों का अंगरेजी करण क्र दिया जाए तो हमारी संस्कृति बरकरार रहेगी।  हल में कल्याण के एक प्रकाशक ने हनुमान चालीसा का रामायण में निकलने का निर्णय लिया है।  अंगरेजी के किस स्तर के प्रयोग से संस्कृति नष्ट हो रही है ? अंग्रेजों के शासन कल में जब अंग्रेजी भाषा थी तब संस्कृति को इतना कस्त्र क्यों नहीं था ? हमारी भारतीय भाषाओँ की मूल प्रति अध्यात्मवाद एवं अपनापन है जब अंगरेजी की मूल भावना बहुईकवाद एवं औपचारिकता है।  अंग्रेजों के समय में हमारी स्कूल शिक्षा स्वभाषा के माध्यम से होती थी और निजी व्यवहार , जैसे विवाह इत्यादि के लिए निमंत्रण पत्र , में स्वभाषा का प्रयोग होता था , पर आज अंगरेजी माध्यम के स्कूलों कि दिनों दिन बढ़ोत्तरी हो रही है और निजी व्यवहार में भी उसका प्रयोग बढ़ रहा है। निजी व्यव्हार को रोकने के लिए अंग्रेजी का का प्रयोग करने वाले के साथ असहयोग करना होगा, जैसे अंगरेजी मैं आये निमंत्रणों को स्वीकार नहीं करना और स्वभाषा के प्रति स्वाभिमान को जगाना होगा।  स्वभाषा के माध्यम से स्वदेश के प्रति चिंतन जागरूक होगा।  इस सम्बन्ध में निम्न विचार उपास्थि हैं।
भ्रष्टाचार : भ्रष्टाचार का कारण है भौतिक सुख के लिए धनोपार्जन।  भैतिक सुख का कारण है भौतिकवाद की विचारधारा को अपनाना।  जैसा हम ऊपर कह चुके हैं की अपनी भारतीय भाषाओँ की मूल प्रवृति अध्यात्मवाद एवं अपनापन है जब की अंगरेजी की मूल भावना भौतिकवाद एवं औपचारिकता है। अतः अंग्रेजी को जीवन के हर छेत्र में माध्यम के रूप में अपनाने से भौतिकवाद और भौतिकवाद से भ्रष्टाचार बढ़ा है।  यदि यह कारन नहीं है तो अन्य कारण क्या है इस पर विचार आवश्यक हैं।
राष्ट्र एवं जान हित : किसी भी राष्ट्र एवं उसके जन हित का अर्थ है जन जन की खुशहाली , आर्थिक सम्पन्नता , आत्मनिर्भरता एवं स्वाभिमान से जीना।  विश्व में विकसित राष्ट्रों में ऐसा पाया जाता है।  विचारणीय है कि विकसित राष्ट्र बनने  में स्वभाषा /जनभाषा की क्या भूमिका है ? यह देखा जाता है कि विश्व में विकसित राष्य्र वही है जिसकी जनभाषा, शिक्षा का माध्यम व कार्यभाषा एक हो।  वैज्ञानिक  तर्क पर यह सही प्रतीत होता है।  किसी भी देश का विकास , मौलिक शोध एवं उस देश की धरती के संसाधनों से जुड़े प्रद्योगिकी विकास के लिए अनुप्रयोगिक शोध पर निर्भर करता है।
वैज्ञानिक शोध दो प्रकार के होते हैं मौलिक जिसमें प्राकृतिक नियमों की मूल भूत खोज होती है और अनुप्रयोगिक जो देश विशेष के संसाधनों, पर्यावरण, जलवायु इत्यादि पर आधारित होते हैं।  अनुप्रयोगिक शोध से ही देश विशेष की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी का विकास होता है।  जहाँ मौलिक शोध से देश की आर्थिक सम्पन्नता व उसकी प्रतिभा बढ़ती है वहीं अनुप्रयोगिक शोध से आत्मनिर्भरता बढ़ती है। मौलिक शोध का तजा उदाहरण बिल ग्रेट्स द्वारा व्यक्तिगत कम्प्यूटर सिद्धांत का विकास है।  इससे अमरीका की सम्पन्नता बढ़ी।  स्वभाषा के कम्प्यूटरों का विकास अनुपयोगिक शोध का उदाहरण है।
देश विशेष की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी के विकास ही जान जान के लिए उपयोगी व्यवसाय विकसित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए घरेलू उद्योग धंधे यथा कुम्हार का मिट्टी का कुल्लड़ , कृधि का विकास।  कुल्लड़ का कचरा प्रदूषण पैदा नहीं करता  क्योंकि टूटने पर मिट्टी मिट्टी में मिल जाती  है ,हमारे देह में किसान गोबर के खाद का प्रयोग करते थे, जो जो धरती की उवरा शक्ति को नष्ट नहीं करता। रासायनिक खाद का प्रयोग हम अपनी धरती उर्वरा शक्ति को खो रहे हैं।  यदि इस क्षेत्र में शोध कियस जाता तो कुम्हार के कुल्ल्र्ड को मजबूत किया जाता।  कचरा आदि रसायन रहित खाद का प्रयोग बढ़ाया जाता,तो गाँव गाँव में व्यवसाय विकसित होते और शहर की और दौड़ कम होती।  इसी प्रकार परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में धरती से जुड़े शोध का उदाहरण है थोरियम आधारित परमाणु विजली घर का विकास क्योंकि हमारे देश में थोरियम का अथाह भंडार है , यूरेनियम का नहीं। अतः थोरियम के परमाणु बिजली घरों के  विकास हमें आत्मनिर्भर  आत्मनिर्भर बनाएँगे जब कि यूरेनियम के परमाणु बिजली घर हमें पश्चिम के विशेष क्र अमरीका पर निर्भर रखेंगे। मौलिक और अनुप्रयोगिक दोनों प्रकार के शोध देश की प्रतिभाओं द्वारा होते हैं। दोनों शोध के लिए पहली आवश्यकता है मौलिक / रचनात्मक चिंतन व् लेखन एवं ज्ञान का आत्मसात करना , दूसरी आवश्यता है भाषा पर अधिकार  व तीसरी है अपने देश की आवश्यकताओं को समझना।  प्रश्न उठता है कि क्या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाली प्रतिभाएँ इस दिशा में कार्य कर सकेंगी ?
मौलिक चिंतन एवं लेखन :  इसमें विचारणीय है कि क्या (1 ) स्कूली विशेषकर प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या जनभाषा से अलग भाषा होने पर मौलिक  चिंतन समाप्त हो जाता है क्योंकि उस भाषा को सीखने के लिए रटना पड़ता है और बौद्धिक विकास के प्रारंभिक वर्ष दूसरी भाषा के सीखने मेंव्यतीत हो जाते हैं।  जबकि स्वभाषा और जनभाषा से सहजता से ज्ञान अर्जित करने के कारण मानसिक विकास होता है, दुसरे विचारों की उड़ान सपनों में होती है और सपने स्वभाषा में ही देखे हैं।  मौलिक चिंतन के लिए सपनों की भाषा एवं शिक्षण भाषा का एक होना आवश्यक है।  (2 ) ज्ञान का आत्मसात स्वभाषा /जनभाषा से ही संम्भव है क्योंकि ोग जनम से ही हमारे रग रग में बस जाती है।  (3 ) दुसरे भाषा से हम ज्ञान तो प्राप्त क्र सकते हैं पर ज्ञान का सृजन नहीं क्र सकते।  (4) मौलिक लेखन के लिए विचारों को लिपिबद्ध करने के लिए आवश्यक इच्छा तब ही होगी जब मौलिक लेखन स्वभाषा या जन भाषा में हो।
भाषा पर अधिकार :- व्यक्ति चाहे जितना भी चिंतन कर ले यदि उसका भाषा पर अधिकार नहीं है तो न तो वह सत्साहित्य को ग्राह्य कर सकता है और न स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है। अपने शोध को समझाने के लिए भाषा पर अधिकार की आवश्यकता होती है।  विचारणीय है कि क्या शिक्षा का माध्यम और बोलचाल की भाषा अलग होने से अभ्व्यक्ति प्रभावी होगी या हम आधे अधूरे रहेंगे।  सत्य तो यह है कि न तो हम उन लोगों में प्रभावी होंगे जिनकी हमारी स्कूली शिक्षा का माध्यम है और ना ही अपने लोगों में।
देश की आवश्यकताओं को समझना : अनुप्रयोगिक शोध के लिए आवशयक है उस देश की मूलभूत आवश्यकताओं को समझना , उसके संसाधनों,उसकी जलवायु एवं उसके परिवेश से परिचित होना।  भारत का परिवेश गाँवों से है , अतः गाँवों से जुड़ना आवश्यक है। विचारणीय है कि अँग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले लोग हमारे गाँवों की स्थिति दर्शाने वाले समाचार पत्रों एवं स्वभाषा में लिखे साहित्य को न पढ़ने के कारण हमारे गाँवों के परिवेश से न जुड़ कर विदेशी परिवेश से जुड़ रहे हैं।
— डॉ विजय कुमार भार्गव  

डॉ. विजय कुमार भार्गव

1956 में एम.एस.सी की उपाधि अर्जित कर डाॅ. विजय कुमार ने पाॅंच वर्ष अध्यापन कार्य करके सन् 1961 में बी.ए.आर.सी में प्रवेश किया। परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की छात्रवृति पर न्यूयाॅर्क विश्वविद्यालय भेजे गए। वहाॅं से सभी विषयों में ए ग्रेड लेकर एमई की उपाधि अर्जित कर 1970 में भारत लौटे। अमरीका प्रवास ने भार्गव की सोच को बदल दिया और राष्ट्र के संसाधनों से जुड़े शोध के लिए मौलिक चिंतन, देश के लगाव की दृष्टि से स्वभाषा का महत्व और अपना लक्ष्य स्पष्ट परिलक्षित होने लगा। धर्मपत्नी के सहयोग से परमाणु ऊर्जा ज्ञान को जन-जन तक पहुॅंचाने के लिए आपने हिन्दी भाषा में अनेक संगोष्ठियाॅं की, 40 बड़े-बड़े चार्ट बनाए और संगोष्ठियों में प्रदर्शित किए, शेाध ग्रंथ द्विभाषिक प्रस्तुत किया जिसके लिए परमाणु ऊर्जा के तत्कालीन अध्यक्ष डाॅ. चिदम्बरम द्वारा सम्मानित किए गए। सन् 1995 में अवकाश प्राप्त करने के बाद भारतीय भाषा प्रतिष्ठापन राष्ट्रीय परिषद की स्थापना की और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। सम्प्रति दृष्टि हीनों के लिए हिन्दी ब्रेल में प्रकाशित विज्ञान पत्रिका का सम्पादन किया। अब हिन्दी में वैज्ञानिक पुस्तकें लिख रहें हैं। ‘क्षः किरण एवं नाभिकीय विकिरण द्वारा चिकित्सा‘, ‘पुस्तक एटम की कहानी’, ‘पर्यावरण एवम् विकिरण‘ एवं ‘आध्यात्मिक चिंतन का वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ लिख चुके हैं तथा अब ‘वेद और विज्ञान’ पर लिख रहे हैं।