कविता

बाल मज़दूर

पूज्य हैं जो किसी के लिए
हैं निरर्थक वे किसी के लिए
पर वे ही प्राणी पीड़ित समझ
सुख – दुख में हर पल साथ जिये ।
अभावों से पीड़ित जो
झुग्गियों के वासी हैं
हम करें कैसे विस्मृत
वे भी तो भारतवासी हैं ।
देख निर्धनता का ताना – बाना
मन का दीपक बुझ जाता है
पीड़ित पीड़ा में देख रत
अश्रु प्रवाह हो जाता है ।
मानवता के रथ पर किये
सवार मानस के विचार
कैसे पूरी करें साधें
कैसे दें साधन अपार ।
बचपन की नहीं सुधी
मज़दूर बनने को आबद्ध
जीविकोपार्जन में ही रत
शिशु सलोने लगते वृद्ध ।
कोमल सुनहरे सपने उनके
कीचड़ से ही सन जाते हैं
मज़दूरी के दलदल में
आधे – अधूरे रह जाते हैं ।
जीवन – वीणा में झंकार मात्र है
प्रलय होता मस्तिष्क में
मोती – – मोती टूटते – बिखेरते
क्या जुड़ सकेंगे भविष्य में ?
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’