हास्य व्यंग्य

जली-कटी बातें और जली हुई रोटी

“यह भी कोई बात है कि पत्नी जली हुई रोटी खाने को दे तो पति उसे अपशब्द कहे और तलाक-तलाक-तलाक कहकर पत्नी से छुटकारा पा ले,” दद्दाजी ने भड़कते हुए कहा।
मैंने दद्दाजी के आगमन पर घर का माहौल शांत रखने की दृष्टि से श्रीमती जी को कष्ट न देते हुए खुद ही चाय बनाकर चाय की प्याली उन्हें देते हुए कहा- “ हाँ दद्दाजी,ऐसा होना तो नहीं चाहिए!केवल जली हुई रोटी ही तो खाने को दे रही थीं,जहर तो नहीं दिया था।ऐसी रोटी नहीं खाना थी तो नहीं खाते और पत्नी से बोल देते कि बेगम मुझे भूख नहीं है।”
हाँ,सही कह रहे हो भाई।हमारी तो उम्र ही पक गई जली-भूनी,कच्ची-पक्की रोटी-सब्जी खाते-खाते,लेकिन मजाल है कि हमने कभी विरोध को स्वर दिया हो! हमने तो हमेशा ही अपनी धर्मपत्नी का मान रखा है।कभी छुटकारा पाने का ख्वाब तक नहीं देखा क्योंकि पत्नी भी मिलती है भाग्य से ही वरना तो कई लोग शादी का सपना देखते-देखते कुंवारे ही मर जाते हैं!वैसे भी लिंग अनुपात में कितना अंतर है।लड़कों की चाह में कन्या जन्म से लोग तौबा कर रहे हैं और लड़कों के लिए कन्याओं का अकाल उत्पन्न कर रहे हैं,मेरे स्वयं के दोनों बेटे कुंवारे बैठे हुए हैं”दद्दाजी ने अपना दर्द बयां किया।
“सही है दद्दाजी,हम तो जली-भूनी रोटी भी बड़े ही चाव से खा लेते हैं तिसपर दाल-सब्जी न भी बनी हो तो अचार-रोटी खाकर ही श्रीमती जी के गुण गा लेते हैं।उनके अवगुण कभी चित नहीं रखते,कभी कोई गिला-शिकवा नहीं!यहाँ तक कि दिन-रात की जली-कटी भी हँसते-हँसते सुन लेते हैं।बात-बेबात जली-कटी सुनना भी हमने अपना नसीब मान लिया है,कभी यह नहीं सोचा कि पत्नी को तलाक दे दें।हमें भी मालुम है कि पत्नी को तलाक दे दिया तो दूसरी पत्नी कहाँ से लायेंगे।खां मियां तो खुशनसीब हैं कि तलाक-तलाक-तलाक कहकर एक को छोड़ देंगे तो दूसरी तलाकशुदा को घर में बैठा लेंगे,”हमने अपना ईर्ष्या भाव प्रदर्शित किया।
“नहीं भाई,सभी लोग ऐसे नहीं होते और न ही सबके नसीब एक जैसे होते हैं। कई लोग सम्बन्ध को अच्छे से निभाते भी हैं।भले ही जला-भूना खाना खाए या रोजाना की चखचख और जली-कटी सुनें,फिर भी उनमें प्रेम भाव बना रहता है।तुम हमें ही देख लो!हमने भी इसी के चलते अपनी उम्र गुजार दी है,”दद्दाजी ने ठण्डी सांस लेते हुए दलील दी।
“अरे दद्दाजी,हम तो फिर भी भाग्यशाली हैं।कई लोग तो ऐसे भी हैं जिन्हें चुल्हा चौका खुद ही करना पड़ता है।घरवाली को खाना बनाकर खिलाने से लेकर घर के नित्य के कार्य लेकिन वे उफ्फ तक नहीं करते!कम से कम खां साहब ने उनसे तो अच्छी किस्मत पाई थी कि पत्नी भले ही जली हुई रोटी खाने को दे रही थी,कम से कम तैयार रोटी तो मिल रही थी,” मैंने सहमति जताते हुए कहा।
“सच है लेकिन चलो इस मसले को यहीं विराम देते हैं।कहीं ऐसा न हो कि हमारी घरवालियाँ अपनी बातों को सुन लें और नाराज होकर रोटी ही खाने को न दें,”दद्दाजी ने धीमे स्वर में यह कहते हुए चर्चा यहीं समाप्त कर दी।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009