सामाजिक

लेख– योगीराज में भी बेलगाम हो रहें आपराधिक प्रवृत्ति के लोग

सियासी तौर पर देश के सबसे मजबूत राज्य की नियति जाति, धर्म में सिर्फ़ बिखरना ही नहीं रह गया है। बल्कि अपराध के क्षेत्र में भी पिछले कुछ वर्षों में सिरमौर बना हुआ है। वह उसके अतीत को तो प्रभावित कर ही रहा है, साथ में वर्तमान और भविष्य को भी क्षति पहुँचा रहा है। कहते हैं, कि सूबे की माटी इतनी पवित्र रहीं है, कि अतीत में इसी भूमि पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अवतरित हुए। पर वर्तमान दौर में सूबा तरक़्क़ी, सामाजिक सुरक्षा और ख़ुशहाली के नाम पर सिसक रहा। तो इसके लिए जिम्मेदार शासन-प्रशासन के साथ आम जन भी हैं। सफेदपोश दावा करते हैं, कि न गुंडाराज, न भ्रष्टाचार। फ़िर भी अगर मज़हबी भेदभाव, द्वेष और सामाजिक असुरक्षा से आज कबीर और श्रीराम की भूमि कराह रही। तो इसके लिए विशेष रूप से जिम्मेदार लालफीताशाही व्यवस्था है। अगर बात अतीत से शुरू करके वर्तमान दौर तक की करें। तो आज श्रीराम और श्रीकृष्ण की जन्मस्थली जातिवाद की जकड़न में दमे से पीड़ित नहीं मिलेगी, बल्कि वह सामाजिक कुरीतियों के साथ सामाजिक असुरक्षा की वजह से वेंटिलेटर पर मामूल पड़ेंगी। आए दिन हत्या, बलात्कार, जातिगत हिंसा, फिरौती और वैमनस्यता सूबे की सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बनती जा रही। स्थिति तो यहां तक आ पहुँची है, कि अब सूबे की जेलें भी सुरक्षित मामूल नहीं पड़ रहीं। पिछले दिनों की घटना को सुनने के बाद। जब सूबे के विख्यात गुंडे मुन्ना बजंरगी को जेल में गोली मार दी गई। अब बात वर्तमान सरकार की करें, तो बीते वर्ष विधानसभा चुनाव के वक़्त भाजपा ने नारा दिया था, सूबे को अपराध मुक्त बनाने का। गुंडाराज से मुक्त प्रदेश बनाने का। पर बीते लगभग एक वर्ष से अधिक समय का विश्लेषण करने पर यह कहा जा सकता है, निर्विरोध रूप से, कि जिस रामराज्य की परिकल्पना भाजपा ने चुनाव के पूर्व पेश की थी। वह योगी के लगभग एक वर्ष से अधिक के कार्यकाल में ढाक के तीन पात ही साबित हो रहा है।

ऐसे में सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की भूमि जो प्राचीन काल मे संतो-महात्माओं की जन्मस्थली में अग्रणी थी, वह आज के बदलते समयचक्र और सियासी प्रणाली में अपराधियों की शरणगाह करार कर दी जाएं। तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कालांतर में जो गंगा-जमुनी संस्कृति, तहज़ीब और अदब की उपजाऊ भूमि रही थी, उसे आज के सियासी हित के लिए इन तौर-तरीकों और तहज़ीब से बंजर भूमि में तब्दील कर दिया गया। जहां पर सिर्फ अपराध का बोलबाला हो गया है। जो चिंता का विषय है। बीते कुछ वर्षों के आंकड़ों को नजदीकी से खंगाले तो सूबा हत्या, लूट, अपहरण और साम्प्रदायिक दंगों में बीमारू राज्यों बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश से तनिक भी पीछे नहीं मिलता। भले ही अन्य नेक और विकास के मुद्दों पर पिछड़ा हो। राष्ट्रीय आंकड़ो में सूबे का प्रतिवर्ष अपराध के मामलों में शीर्षस्थ तीन राज्यों के बीच होना यह बताता है, कि सूबे में सरकार किसी भी झंडे तले चले। पर वह अपराध मुक्त प्रदेश बनाने में अपने-आप को अक्षम पाता है।

हम यहां बात ज्यादा वर्षों पहले की नहीं करने वाले। बात अगर बीते उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की करें। तो उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अखिलेश यादव सरकार के खिलाफ सूबे की बदहाल कानून व्यवस्था को मुख्य मुद्दा बनाकर सत्ता से नजदीकियां बनाई। सूबे में चुनाव के दरमियां भाजपा द्वारा चस्पा किए गए सभी होर्डिंग इसी मुद्दे से जुड़े नारों से अटे थे। मसलन- महिलाओं पर हो रहा अत्याचार, सो रही अखिलेश सरकार, अबकी बार, भाजपा सरकार। पर एक वर्ष से अधिक का वक़्त गुज़र जाने के बाद संयोग देखिए। आप अगर पूरा सूबा छान मारेगें। तो कहीं न कहीं एकाध होर्डिंग दिख जाएगी। जिसपर कमल का फूल बना होगा, साथ में सामाजिक सुरक्षा का दावा भी वहीं होगा, जो चुनाव के वक्त सत्ता प्राप्त करने के लिए किया गया था। अब सत्ता में बैठे हुए एक वर्ष से अधिक का समय भी गुजर गया। तो इतने समयांतराल में फ़र्क सिर्फ़ इतना आया है कि अब सूबे में भाजपा की ही सरकार है और अखिलेश सरकार की खिल्ली उड़ाने वाले वही नारे अब योगी सरकार को सवालों के घेरे में ला रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सूबे में न महिलाएं सुरक्षित हैं, न कारोबारी और तो और जेलों में अब कैदी ही जब सुरक्षित नहीं होंगे। तो अंदाजा लगाया जा सकता है, कि सुनसान सड़कों पर निकलना किस तरीक़े का एहसास दिलाता होगा।

अब हम अगर तुलनात्मक अध्ययन अखिलेश सरकार के आख़िरी कुछ महीनों और योगी सरकार के शुरुआती कुछ महीनों के बीच करें। तो जिस सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे को उठाकर योगी सरकार सत्ता तक आई। उसी विषय पर वह औंधे मुँह गिरती हुई दिख रही। उसके अलावा जिस हिसाब से उसके मंत्री और विधायक पूर्ववर्ती सरकारों के मंत्री- विधायकों की चाल का अनुसरण करते दिख रहें। उसने यह साबित किया। सरकारें किसी भी दल की हो। सभी सिर्फ़ सत्ता से बाहर होने पर ही सब कुछ ठीक करने का दावा ठोकते हैं। सत्ता मिलते ही उनके दावों की हवा निकलनी शुरू हो जाती है। अब बात करतें हैं, योगी राज में बढ़ते अपराध की। तो पहले ज़िक्र उसके चुनावी दावे की करते हैं। चुनाव में उसका फ़ोकस महिला सुरक्षा पर था। अब अगर अप्रैल 2017 से जनवरी 2018 के मध्य महिलाओं के ख़िलाफ़ योगीराज में मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार 44, 936 मामले दर्ज हुए। जिसमें बलात्कार के मामले 3704, छेड़खानी के लगभग 900 मामले, उत्पीड़न के 13, 392 और दहेज हत्या के 2223 मामले दर्ज हुए। तो ऐसे में यह तो अखिलेश सरकार के कार्यकाल के आख़िरी कुछ समय से काफ़ी ज्यादा दिखते हैं, क्योंकि अखिलेश सरकार के कार्यकाल के आखिरी लगभग एक वर्ष के बीच अप्रैल 2016 से जनवरी 2017 के मध्य 33 हज़ार के करीब मामले दर्ज हुए थे। ऐसे में क्या कहें। अपने किए हुए दावों पर ही योगी सरकार फ़ेल होती दिख रहीं। इतना ही नहीं जिस तरीक़े से एनकाउंटर कराकर सूबे की सरकार सूबे को अपराध मुक्त बनाने की फिराक में है। उस पर अंगुली शुरुआत से ही उठ रहीं है। सूबे में ऐसे में सरकारें किसी की भी आएं जाएं अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहा। तो इसके कुछ विशेष कारण है। अब इन कारणों का ज़िक्र होना लाजिमी हो जाता है। इन कारणों में सबसे पहला कारण राजनीति अपराध का पर्याय बनती जा रहीं। विधानसभा में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की संख्या बढ़ रही। दूसरा पुलिस बल की कमी। तीसरा सामाजिक ढांचे का कमजोर होना। चौथा कारण नैतिक आचरण का गिरता स्तर।

2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर 69.72 फीसदी है, जो कि देश में नीचे से आठवें स्थान पर है। उत्तर प्रदेश की आबादी करीब 21 करोड़ है और एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 1 करोड़ 32 लाख नौजवान बेरोजगार हैं। अफसोस की बात ये है कि बेरोजगारों की इस फौज को कम करने की कोई नीति किसी भी झंडे की सरकार के पास दिख नहीं रहा। गृह- मंत्रालय के 2017 के एक आंकड़े से पता चलता है, कि प्रदेश में पुलिसकर्मियों के स्वीकृत 3 लाख 63 हजार 785 पदों के सापेक्ष कुल नियुक्तियां महज 1 लाख 81 हजार 827 ही हैं। इसके अलावा प्रदेश में  प्रति 100 वर्ग किलोमीटर पर सिविल पुलिस कर्मियों की संख्या महज 64 के करीब है। जो कि स्वीकृत संख्या 123.15 की आधी है । इसके अलावा अगर प्रदेश में 1192 नागरिकों की आबादी पर एक पुलिसकर्मी है। जो कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय किसी भी मानक पर खरी नहीं उतरती। साथ में पुलिस बल की कार्यवाही पर भी सरकारी रहनुमाई व्यवस्था हस्तक्षेप करती है। फ़िर ऐसे में अपराध मुक्त समाज की परिकल्पना सिर्फ़ कोरे कागज़ या फ़िर सपनों में ही बनाया जा सकता है। सच्चें अर्थों में अगर योगी सरकार सूबे की सामाजिक व्यवस्था में आमूल- चूल परिवर्तन लाना चाहती है। तो वह पहले शिक्षा की पहुँच सब तक सुनिश्चित करें। रोजगार पैदा करने के लिए नीतियां बनाए। जिससे सूबे के लोग भूखे पेट सोने को विवश न हो। प्रशासनिक आला- अधिकारियों पर से सरकारी लग़ाम हटें। पुलिस बल में बढोत्तरी की जाएं। तो सूबे को नए सवेरे की तरफ़ ले जाया जा सकता है। अपराध मुक्त समाज बनाया जा सकता है। वरना चुनावी दावों का क्या। सभी सरकारें करती हैं, और सत्ता में रहकर चली जाती है। पर कुछ नहीं बदलता तो वह होता है, सामाजिक परिदृश्य में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896