लघुकथा

उड़ान बाक़ी है

सरिता पचास साल पूरे कर चुकी थी आज उसका जन्मदिन था । बालकनी में बैठी अपने जीवन का ऑकलन कर रही थी !! क्या पाया-क्या खोया? अब आगे क्या -क्या करना है ? कितनी जल्दी दिन बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता । बचपन से लेकर आज तक की स्पष्ट छवि उसके आगे घूमने लगती है और वो छब्बीस साल पीछे चली जाती है …..

जब उसकी शादी हुई थी उससे पहले उसके कितने पंख लगे थे तब वह उड़ना चाहती थी पर पंख जैसे शादी के बाद वहीं ठहर गये थे और जीवन की गाड़ी इतनी तेज़ी से पटरी पर दौड़ रही थी कि उसे पंख फैलाने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा था ….घर की और बच्चों की ज़िम्मेदारी इतनी थी कि जिससे पीछे नहीं हटा जा सकता था वो यह सब बख़ूबी जानती थी और निभा भी रही थी …..कभी हार ना मानने वाली हमेंशा अपने काम को अंजाम देने वाली आज कैसे चुप बैठ सकती थी जबकि अभी तो उसकी “उड़ान बाक़ी है़…..

आज बच्चे अपने पैरों पर खड़े होने को तैयार थे ….बस इसी उधेड़बुन में लगी थी कि अचानक द्वार की घंटी बजती है और वह दरवाज़ा खोलती है ……बेटा मॉ के गले लग जाता है मॉ मुझे नौकरी मिल गई अब आपकी जो उड़ान बाक़ी रह गई थी उसे पूरा करने का समय आ गया है बस बताओ मुझे क्या करना है ?

मॉ की ऑंखों से ख़ुशी की अश्रुधारा बहने लगी थी मानो आज उसने अपनी बाक़ी की उड़ान भी बेटे के माध्यम से पूरी कर ली थी “आज दुबारा उसके पंख लग गये थे और वह उड़ पा रही थी ………

— नूतन

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक