कविता

श्रापित संपदा

उद्योगीकरण के आँधी में
जब बुझने लगती पर्यावरण की बाती
तब करने लगती धरती त्राही-त्राही
और तब
श्राप बनती संपदा
किसी स्थान के लिए
तब मजबूर होकर पलायन करता
हर एक आदमी।
उद्योगीकरण की मशाल देखकर
बुझने लगती पर्यावरण की बाती
और लोगों को गलती समझ न आती।
जहाँ बहती थी मिट्टी की खुशबू
वहाँ आती अब धुएं की बदबू।
श्रापित संपदा के ही कारण
शरणार्थी बना वही का निवासी।
आधुनिकता का दौड़ मे
भुलाना नही पर्यावरण को
वरना पछताओगे
और कुछ नहीं पाओगे।

— श्रीयांश गुप्ता

श्रीयांश गुप्ता

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