लघुकथा

समाज (भाई भाई)

अनिल और यूसुफ़ दोनों सीनियर सिटीज़न पार्क में रोज़ मिलते थे । घंटों बातें करते रहते फिर घर चले जाते । रोज़ यही सिलसिला चलता रहता । आज भी वे दोनों मिले पर अनिल ख़ुश नहीं थे ।
युसुफ बोले “ भाई क्या हुआ ? बड़ा मुँह लटका हुआ है “?
“अरे कोई बात नहीं बस कल टेलिविज़न पर ‘हल्ला बोल ‘ करके एक कार्यक्रम आता है । वह देख रहा था उसे देखकर मन बहुत परेशान हो गया ।”
“एैसा क्या हो गया उसमें ज़रा हमें भी तो पता चले । जिसने हमारे दोस्त की हँसी छीन ली “ मज़ाक़ करते हुए !
“जो लोग समाज में धर्म के बड़े ठेकेदार बने फिरते हैं । वे सब आपस में एक दूसरे के धर्म को नीचा दिखाने के चक्कर में बहुत तू-तू, मैं-मैं कर रहे थे और एक दूसरे के भगवान को भी नीचा दिखाने में लगे थे। अरे वह तो एक ही है बस नाम अलग-अलग रख दिये हैं ।”
“तो क्या हुआ उनको करने दो तुम क्यों परेशान होते हो ?”
“एैसा नहीं है मुझे भी इसी समाज़ में रहना है और तुम्हें भी फिर यह सब क्यों ? अच्छा नहीं लगता भाई।”
“सही कहा ज़नाब ! हम सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं, आपस में मिलकर एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण किया है तो इसका मान रखना भी हर एक नागरिक का कर्तव्य है ।जो हमें मरते दम तक निभाना चाहिये ।आख़िर हम सब भाई-भाई जो ठहरे।”
“यही तो ! जिसको जिस धर्म में आस्था हो उसे वह अपनाने दो ,यूँ किसी पर कीचड़ ना उछालिये ! हम सब एक स्वतंत्र भारत की संतान हैं। जिसे हमें आगे बढ़ाना है ना कि पीछे ।“
चलो अब हमारे बीच में तो कोई वैमनस्य नहीं फिर ज़रा मुस्करा तो दो। दोनों फिर नैतिक दिनचर्या में आ जाते हैं और चल पड़ते हैं …….

— नूतन (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक