इतिहास

मैं आजादी का दीवाना: चंद्रशेखर आजाद की आत्मकथा

मैं कोई कवि नहीं था, पर मैंने भी एक कविता लिखी थी. कहते हैं, सच्ची कविता दिल की आवाज होती है, मात्र तुकबंदी नहीं. मेरी कविता भी मेरे दिल की आवाज है. मैंने लिखा था-

”दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, 
आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे.”

यही कविता मैं अक्सर गाया-गुनगुनाया करता था. मैं अंत तक आजाद ही रहा था. आजाद रहने वाले को मरने का भी डर नहीं होता. मुझे भी नहीं था, इसलिए मैंने आजादी के यज्ञ में मात्र 24 साल की आयु में साहसपूर्वक खुद को गोली मारकर अपनी जान की आहुति दे दी.

मेरी मां चाहती थीं कि मैं संस्कृत का बड़ा विद्वान बनूं, पर मुझे तो देश को आजादी दिलानी थी, सो मैं आजादी का दीवाना बन गया. असहयोग आंदोलन के दौरान एक बार मुझे गिरफ्तार करके जज के सामने पेश किया गया. जज ने मुझसे मेरा नाम, पिता का नाम और पता पूछा. मैंने जवाब में अपना नाम आजाद बताया, पिता का नाम स्वतंत्रता और पता जेल बताया. इस घटना के बाद ही मेरा नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी के बजाय चंद्रशेखर आजाद हो गया. मेरा जन्म 23 जुलाई, 1906 को हुआ था. 27 फरवरी 1931 को अंग्रेजों के हाथ अपनी आजादी न खोने के लिए मैंने खुद को गोली मार ली. मैं आजादी का दीवाना जो था!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “मैं आजादी का दीवाना: चंद्रशेखर आजाद की आत्मकथा

  • लीला तिवानी

    चंद्रशेखर ने अपने नाम के आगे आजाद लगाया और अंत तक आजाद ही रहे-

    देश की आजादी के यज्ञ में मात्र 24 साल में अपनी जान की आहुति देने वाले आजाद की सबसे बड़ी ख्वाहिश पूरी तो हुई, लेकिन उनके जीते-जी नहीं। देश को आजादी तो मिली, लेकिन आजाद के बलिदान के 16 साल बाद। शहीद चंद्रशेखर आजाद की 2 और ख्वाहिशें थीं, जो कभी पूरी न हो सकीं। कहते हैं कि देश की आजादी के लिए वह रूस जाकर स्टालिन से मिलना चाहते थे। आजाद की दूसरी ख्वाहिश थी अपने साथी क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी के फंदे से बचाना। इसके लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की और बहुत लोगों से मिले भी, लेकिन उनकी शहादत के एक महीने के भीतर ही उनके साथी भगत सिंह को भी फांसी दे दी गई।

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