कविता

बस इंतज़ार –बस इंतज़ार

कभी कभी अंधेरी सुनसान रातों में ,

नींद आँखों से ओझल हो जाती है…

और मन ही मन चल पड़ता हूँ —

दूर किसी अनजान सी डगर पर

नज़र आते हैं कुछ धुंधले से साये

बीती यादों के, कुछ बीती बातों के

पुराने रिश्तों के, पुराने मित्रों के

अनुभव मीठेऔर कुछ कड़वे भी

रास्ते के पत्थरों की तरह चुभते हैं

और मैं नंगे पाँव चलता ही जाता हूँ

पैरों से रिस्ते हुए खून से अनजान

बस राह में बन जाते हैं अमिट निशान

मैं मुड़ कर देख भी नहीं पाता —

बस चलता ही जाता हूँ —

इक अनजान सी मंज़िल की और

शायद फिर से कोई अपना मिल जाये

और मुझे सीने से लगा कर कहे —

आ गए तुम ,

मुझे तुम्हारा ही इंतज़ार था

बस इंतज़ार –बस इंतज़ार

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया जन्म दिन --१४/२/१९४९, टेक्सटाइल इंजीनियर , प्राइवेट कम्पनी में जनरल मेनेजर मो. 9855022670, 9855047845